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रवीन्द्र-कविता-कानन
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तुम डर रहे हो वह अन्याय तुमसे भी भीरु है । तुम जागे नहीं कि वह भागा। तुम उसके सामने खड़े हुए नहीं कि वह रास्ते के कुत्ते की तरह संकोच और त्रास के मारे सिकुड़ कर रह जायगा। उससे देवता भी विमुख हैं, उसका सहायक कोई नहीं, उसका यह जितना रोब-दाब है—जितनी बड़ी-बड़ी बातें वह करता है, यह सब बस जबानी जमाखर्च है—मन ही मन वह अपनी हीनता—अपनी कमजोरियों को खूब समझता है।)

'कवि, तबे उठे ऐसो,—यदि थाके प्राण
तबे ताई लहो साथे,—तबे ताई आजि कर दान।
बड़ो दुःख बड़ो व्यथा,—सम्मुखे कष्टेर संसार
बड़ई दरिद्र, शून्य, बड़ो क्षुद्र बद्ध अन्धकार
अन्न चाई, प्राण चाई, आलो चाई, चाई मुक्त वायु,
चाई बल, चाई स्वास्थ्य, आनन्द-उज्ज्वल परमायु,
साहस विस्तृत वक्षपट। ए दैन्य माझारे, कवि,
एकवार निये एसो स्वर्ग होते विश्वासेर छवि!
एवार फिराओ मोरे, लाये जाओ संसारेर तीरे।
हे कल्पने, रङ्गमयि! दुलायोना समीरे समीरे
तरंग-तरंग आर! भुलायो ना मोहिनी मायाय!
विजन विषाद-धन अन्तरेर निकुञ्जच्छायाय
रेखो न बसाये आर! दिन जाय, संध्या होये आसे!
अन्धकारे ढाके दिशि, निराश्वास उदास बातासे
निश्वसिया केंद उठे वन! बाहिरिनु हथा होते
उन्मुक्त अम्बर तले, धूसर-प्रसर राजपथे,
जनतार माझ खाने! कोथा जाव, पान्थ, कोथा जाव,
आमी नहीं परिचित, मोर पाने फिरिया ताकाव!
बल मोरे नाम तब, आमारे कोरो अविश्वास!
सृष्टि छाड़ा सृष्टि माझे बहुकाल करियाछि वास
संगिहीन रात्रि दिन; ताइ मोर अपरूप वेश;
आचार नूतनतर; ताई मोर चक्षे स्वप्नावेश,
वक्षे ज्वल क्षुधानल!—जे दिन जगते चले आसी,
केन् मां आमारे दिली सुधू एई खेलीवार बांशी!