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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

मुखे करे आस्फालन, जानेसे हीनता आपनार
मने मने!—

(जब संसार में, सब आदमी, सब समय, सैकड़ों कामों में लगे रहते हैं, तब भागे हुए बन्धनविहीन बालक की तरह, दुपहर के समय, बीच मैदान में, तरु की विषादमग्न छाया के नीचे, दूर-दूर के जंगलों से सुगन्ध को ढो कर ले आती हुई—धीमी—थकी और तपी हुई हवा में अकेले बैठे हुए तूने खूब तो बाँसुरी फूँकी; भला आज अब तो उठ। क्या तू नहीं जानता?—कहाँ आग लगी हुई है,—संसार के आदमियों के जागने के लिये किसका शङ्ख बज रहा है?—कहाँ के उठते हुए अन्दन से आकाश ध्वनित हो रहा है,—किस अन्धेरे में पड़ी बन्धनों से जकड़ी हुई अनाथिनी सहायता की प्रार्थना कर रही है! अरे देख,—वह देख-पीनोन्नत-शरीर अपमान अक्षमों के वक्ष से खून चूम-चूस कर, अपने लाखों मुखो से पान कर रहा है!—स्वार्थ से उद्धत अविचार वेदना का परिहास कर रहा है!—भय से सिकुड़ा हुआ गुलाम भेष बदल कर छिप रहा है!—कह देख, सब-के-सब सिर झुकाये हये खड़े हैं—किसी की जबान भी नहीं हिलती!—और देख उनके म्लान मुखों में शत-शत शताब्दियों की वेदना की करुण-कहानी लिखी हुई है!—उनके कन्धे पर जितना भी बोझ रक्खा जाता है, जब तक प्राण है, वे उसे धीरे-धीरे ढोये चलते है, और फिर यही बोझ वे अपनी सन्तानो को वंश- परम्परागत आंधकार के रूप से दे जाते हैं—न इसके लिये अपने भाग्य को ही कोसते है, न विधाता की याद करके उनकी निन्दा ही करते है और न दूसरे मनुष्य को ही कोई दोष देते हैं; अधिक और क्या, वे इसके लिये अभिमान करना भी नहीं जानते; बस चार दाने चुन कर किसी तरह दुःख से पिसे हुए प्राणों को बचाये रक्खे है! जब कोई उनका यह अन्न भी छीन लेता है—जब गर्वान्ध निष्ठुर अत्याचारी उन जैसे प्राणों को भी आघात पहुँचाता है, तब उसे हाय इतना भी नहीं समझ पड़ता कि विचार की आशा से किस के द्वार पर वह जा कर खड़ा होगा!—यह निश्चय है कि एक वह समय आता है जब दरिद्रों के ईश्वर का एक बार स्मरण कर के दीर्घ श्वास के साथ ही वह अपनी मानव-लीला की समाप्ति कर देता है। इन सब थके हुए—सूखे हुए—भग्न-हृदयों में शब्दों की प्रतिध्वनि के साथ आशा को जागृत करना होगा; इन्हें पुकार-पुकार कर, कहना होगा—'जरा थोड़ी देर के लिये सिर ऊँचा करके एक साथ सब खड़े तो हो जाओ। जिस भय से इतना