पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/६

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पराचः कामाननुयन्ति बालाः मेरी तुकबन्दियों का यह एक संग्रह है । अनेक मित्र कहते है तुम दीर्घसूत्री हा । वे ठोक कहते है । प्रत्यक्षत कर्ममय जीवन होते हुए भी, मै यथार्थ मे प्रमादी और दीर्घ सूत्री ठू। तीस-पैतीस वर्षों से लिख रहा हूँ। मित्रा ने मेरे लिखे को नितान्त निरथक माना हो, सो बात भी नहीं है । फिर भो, अवस्था यह है कि मेरी अपनी कृति के रूप में किसी के हाथ कुछ नही लगता। अब यह संग्रह सामने श्रा रहा है। इसमे मेरे गीतो का ही समावेश है । अन्य और दो ग्रन्थ, इसी प्रकार गीतो के निकल रहे है । ज्ञात नहीं, हिन्दी भाषा भाषियों को ये गीत जॅचेगे भी, या नहीं । मैं इनके विषय में क्या कहू ? भले-बुरे, जैसे हैं, वैसे हैं। तुलसी बाबा कह गए हैं-निज कवित्त केहि लाग न नोका 2 मै उनके कथन को दुलखू, इतनी धृष्टता तो नहीं करूंगा, पर, इतना तो मैं कह दूं कि मुझे अपने गोती या अपनी कविताओं से वह तुष्टि नहीं मिली जो मैं चाहता हू। जीवन में आत्मतृप्ति का अभाव कदाचित रहता ही है। यदि यह न रहे तो मनुष्य पूर्ण काम हीन हो जाय ? हॉ, आत्म-सन्तुष्ट होने की जो एक आशा है, जो एक चटपटी है, वह जीवन को, प्रमाद, आलस्य और निद्रा की व्याधियो के रहते हुए भी, चलाए जाती है। इसीलिए ऐमा है कि ढचर-ढचर चलती जाती है मेरी टूटी गाड़ी, यद्यपि -जर्जर हुई आज मम नस-नस, नाड़ी-नाड़ी। श्या वह शान्ति, ह आत्म-तोष मुझ जैसो को उपलब्ध है ? व्यास की कथा प्रसिद्ध है । अष्टादश पुराणां के निर्माण के उपरान्त भी उन्हें तोष नहीं मिला। तब उन्हें श्रीमद्भागवत के प्रणयन की प्रेरणा हुई । तदुपरांत वे पूर्णकाम हुए। मुझमे वह शक्ति नहीं-न आत्मिक, न बौद्धिक, न कलाकुशलत्वमयी--कि स्व- अभिव्यक्ति को मैं परम भागवत-स्वरूप दे सकूँ । इस कारण, ऐसा प्रतीत होता है कि कदाचित् जीवन प्यास मे हो कट जाय । पर, प्यास लगी रहना, वारि-चिराग से तो श्रेष्ठतर हो है न आज के इस आस्था शून्य युग मे अनदेखे की टोह मृत प्राय हो गई है। जीवन के क्षेत्र को हम केवन्न प्रत्यक्ष की परिखा से सीमित कर बैठे हैं। अप्रत्यक्ष