रश्मि रेखा (३) मेरे सजन सलौने तुम बिन मुझको फागुन ही दूभर था कैसे यह होली बीतेगी मुझको तो इसका ही उर था सावन फागुन अलग-अलग भी मेरे लिये निपट दुस्तर था अब तो होली और श्रावणी आई सग सँग इस निजन में | कैसे कर पाऊँगा प्रियतम यह योतिष-अ याय सहन में ? (४) जन फुहियाँ-सुङ्गयाँ चुभती हैं उठते हैं जब घन क्षण क्षण में सन सन-सम-सन सनन सनकती पवन लिपटती है जब तन में तब प्रियतम तव परिर भण की उकठा उठती है मन में क्या बतलाऊ क्या जादू है असमय के भी इन घन-गन में । बना चुके हैं मम मन उन्मन फागुन के ये मेध गगन में ! स्मरण गगन में चमक रहे हैं वे तव युग लोचन रस-राते . जब कि कनखियों से मुझको तुम निरख रहे थे आते-जाते हग से हग जब मिल जाते थे तब तुम थे कुछ कुछ मुसकाते आह । कहाँ वे नयन तुम्हारे । और कहाँ मैं इस अधन में !! क्यों न आग लग जाएअब इन निरगुम फागुन के घन-नान में केन्द्रीय कारागार बरेली दिनांक 1 फरवरी १६