पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/८२

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रश्मि रेखा जग के तुझ बुद्धि भूधर से रस के झरने फूट चले ! कठिन उपल के पक्षास्थल से प्रेमल मोत अटूट चले ।। आपावित हो बुद्धि शैल की तर्क-रूप घाटी घाटी करुणामयी हो उठे सहसा अन विचार की परिपाटी उछाह लहराए मनुज न रष अधीर रहे खग के मन-अंबर में निशि दिन सजल नेह घन मीर रहे । धृति आए निज पर का उच्च शैलजा प्रेम सुरधुनी आए कल कल ध्वनि करती निपट अकूला होकर उमडे जग में वत्सलता भरती एक तान का तारतम्य हा आभास मिटे सग्रह का विग्रह मिट जाए यह सघर्षण-यास मिटे मानव हिय में मानव के प्रति सह-अनुभष की पीर रहे जग के नील गगन में निशि दिन सजल नेह धन भीर रहे । इतनी विस्तृत इतनी चौड़ी हा इस मानव की छाती जिसे निरख कर स्वय सृजन भी कहे लखो मेरी थाती मानव का अति क्षुद्र घरौंदा जग का प्राण बन जाए । यो सीमा में नि-सीमा का विस्तृत चदुआ तन जाए । रह न रण-सज्जा न दुग ही औ कहीं न प्राचीर रहे जा के नील गगन में निशि दिन सजल नेह घन-भीर रहे ! केन्द्रीय कारागार बरेली दिनांक २ फरवरी १w ४५