पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रश्मि रेखा (२) इस असीमाकाश में भी लहरता है सिमिर सागर कौन कहता है गगन का यक्ष है अहनिशि उजागर ? ज्योति आती है क्षणिक उहीत करने तिमिर का घर अन्यथा तो अन्य सम का ही यहाँ उत्पात है सब फिर अँधेरी रात है अब ।

  • घरे दश का हू चिर प्रवासी सतत चितित

हृदय विश्नम अनित आकुल अब से मम पथ सिञ्चित आ प्रकाश विकास ओ नव रश्मि हाम विलास रजित मत चमकना अब निराश्रित हूँ शिथिल स गात हैं सब फिर अधेरी रात है अब श्री गणश कुटोर प्रताप कानयर दिनांक मई १९३६ } १४