पृष्ठ:रसकलस.djvu/१०

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क्यों करूँगा? केवल विद्वज्जन से इतनी ही प्रार्थना है, कि विचार के समय उचित विवेक दृष्टि से ही काम लिया जावे।

इस ग्रंथ को, विशेषकर भूमिका के लिखने में मुझको जितने ग्रंथों से सहायता मिली है, उनकी एक तालिका ग्रंथ में लगा दी गई है। मैं इन सब ग्रंथो के रचयिताओ को हृदय से धन्यवाद देता हूँ, और उनका बहुत बढ़ा आभारी हूँ। क्योंकि मेरे ग्रंथ में जो कुछ विभूति है, वह सब उन्हीं के विशद ग्रंथों अथवा उन्हीं के ग्रंथों से उद्धृत विशेष अंशो का प्रसाद है। मैं क्या और क्या मेरी प्रतिभा, यदि इन ग्रंथों का अवलंबन न होता, तो शायद मैं इस ग्रंथ की रचना में समर्थ न होता। भूमिका में मैंने 'साहित्यदर्पण' और 'रसगंगाधर' से बहुत अधिक सहायता ली है। 'साहित्य-दर्पण' की साहित्याचार्य्य श्रीमान् पं॰ शालिग्रामशास्त्री विरचित 'विमला' नाम्नी हिंदी टीका, और श्रीमान् पंडित पुरुषोत्तमशर्मा चतुर्वेदी के 'हिंदी-रसगंगाधर' से मुझको संस्कृत के वाक्यों और अवतरणों का हिंदी अनुवाद प्राप्त करने में बहुत बड़ी सहायता मिली है, मैंने प्रायः यथातथ्य उन्हीं के हिंदी अनुवाद को अपने ग्रंथ में रख दिया है, अतएव मैं इस विषय में उन दोनो सज्जनो का विशेष ऋणी हूँ। मैंने रसो अथवा संचारी भावादि के लक्षण स्वयं लिखे हैं, किंतु कहीं-कहीं किसी-किसी ग्रंथ के लक्षणो को ही उत्तम समझकर अपने ग्रंथ में उठाकर रख दिया है; मैं इसके लिये उन ग्रंथों के रचयिताओं का भी कम उपकार नहीं मानता।

अयोध्यासिंह उपाध्याय
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