पृष्ठ:रसकलस.djvu/११

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प्राक्कथन

अत्यंत प्रसन्नता का अवसर है कि इधर हमारी भाषा और हमारे साहित्य की उत्तरोत्तर श्रीवृद्धि होती जा रही है, प्रत्येक विद्वान् और सुयोग्य महानुभाव इनकी उन्नति के लिये अनुदिन तन, मन, धन से प्रयत्नशील हो रहा है। नये-नये सुंदर-सराहनीय ग्रंथ-रत्नों से भाषा- भंडार के भरने का स्तुत्य कार्य किया जा रहा है। विशेष प्रसन्नता होती है यह देखकर कि अब हमारे विद्वज्जन स्थायी साहित्य के निर्माण में भी नवीन विधानों के साथ, वैज्ञानिक ढंग से, अपनी सुरुचि दिखलाने लगे हैं और ऐसे-ऐसे ग्रंथ-रत्न उपस्थित करने लगे हैं जिन पर वास्तव में हिंदी-भापा-भाषियों को गर्व हो सकता है और जो अन्य भाषाओं के रत्नों की श्रेणी में रखे जाकर भी निस्संकोच भाव से मूल्यवान् कहे जा सकते हैं। प्रस्तुत ग्रंथ-रल ‘रसकलस’ इसी प्रकार का एक परम मूल्यवान्, नया अथच न्यारा रत्न है। हम मुक्तकठ से कहते हैं कि यह प्रथ हिंदी-साहित्य की रीति-ग्रंथ-माला में सुमेरु के समान हो सर्व- शिरोमणि है। रस-सिद्धांत पर इधर वैज्ञानिक विवेचन की शैली से कोई भी सुदर सर्वांगपूर्ण ग्रंथ न लिखा गया था, अतएव इस प्रकार के एक ग्रंथ की महती आवश्यकता थी, जिसको पूर्ति श्री० उपाध्यायजी ने इस प्रथ-रत्न के द्वारा करके हिंदी-साहित्य तथा तत्प्रेमियों का चिर-स्मरणीय हित किया है। प्राचीन कवियों में से कुछ ने इस विषय पर अपने रीति ग्रथों में प्रकाश डाला है अवश्य, किंतु बहुत ही सूक्ष्म रीति से। उनका प्रधान उद्देश्य अपने काव्य एवं कवित्व का प्रदर्शन करना मात्र वे वास्तव में कवि-कर्म-कुशल कलाकार थे, काव्य-शास्त्र-सुधारमाम्बुधि-सिद्धांत-तरंगस्नात आचार्य न थे। इसीलिये उन्होंने केवल मूल बातें देकर उनकी उदाहरण-रचना को ही अपना अभीष्ट लक्ष्य रखा था