६३ , लाश पर इरत या कहती है 'अमर' आये थे दुनिया में इस दिन के लिये ॥ करीवे कन हम आये कहाँ-कहीं फिर गर । तमाम उन दुई जब तो अपना घर देखा ।। खशी न हो मुझे क्योकर कजा के आने की। खवर है लाश पर उस बेवफा के आने की ।। लगी ठोकर जो पाये दिलन्या की। महीनो तक मेरी तुरवत हिला की। कहते है आज 'जोक' जहां से गुजर गया ।। क्या खूब आदमी या खुदा मगफरत करे। प्रयोजन यह कि किसी प्रकार हो, परंतु मरण दशा का वर्णन श्रृंगार रस मे होना है। शृंगार रस के स्तभ, रोमाच, न्वरभंग. कप पार ववर्य का भय अथवा त्रास भी हेतु होता है। प्राय. पालम्य ही जुभा का कारण होता है, ये सब सात्विक भाव है। विबाक हाव शृंगार के ही अंतर्गत है, इसमे जुगुप्सा और उग्रता दोनो संचारी भाव पाये जाते है. इसके अतिरिक्त प्रौदा अधीरा और मानिती नायिकाओं के हृदय में भी अनेक अवनगे पर दोनो संचारी भाव बड़े उग्र रूप में प्रकट होते हैं कुछ प्रमाण लीजिये- "नख त सख लो पट नील लपटलली सब भाति कॅप डरदै। मनो दामिन सावन के धन में निरते नहीं भीतर ही तरपै ।" भई भीति बम, प्रीति बस, किधौं भयो पवि पात । उर धरकत, थरथर पत, क्त तिय तेरो गात ॥ दर दर दौरति मदन दुति सम तुगध सरसाति । सेन परी भरी तंति 'जैन भावन काह तिया को तो मोल छला से लला न विवंदं । इल वाले दुओगे जो माहि ता गात में मेरे गुराई नहे। , - आलस अग जाति ॥
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