पृष्ठ:रसकलस.djvu/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६४ रहे देखि हग हैं कहाँ ? तोहि न लाज की छूत मैं वेटी वृषभानु की, तू अहीर को पूत ।। कत मो ढिग आवत रहत बकत कहा बेकाज । तो पै कहा परी न जो गिरी लाज पै गाज ॥ ऐसी दशा में यह स्वीकार करना पड़ता है कि जो वर्जित सचारी भाव हैं, प्रयोजनवश वे भी उसमें गृहीत होते हैं, फिर यह क्यों न माना जाय कि इस रस में सब सचारी भाव आते हैं,। वास्तविक बात तो यह है कि जीवन-संबंधी घटनाओं का जितना अधिक सवध श्रृंगार से है, अन्य रसों से नहीं । दाम्पत्य जीवन में घटना सूत्र से जितनी मानसिक वृत्तियों का विकास एव विविध नायिकाओं के आधार से जितने भावों का आविर्भाव श्रृंगार रस में होता है, अन्य रसों में हो हो नहीं सकता, क्योंकि प्राय नूतन घटनाएँ उनमें संघटित नहीं होती, इसलिये उनमें समस्त संचारी भाव आ ही नहीं सकते। और रसों से श्रृंगार रस की यह बहुत बड़ी विशेषता है, इसलिये उसे रस- राज माना जाता है। यह भी उसकी प्रधानता को ही दलील है। शृगार रस के ग्रंथो में जहाँ रसो का वर्णन किया गया है, वहाँ सव रसों के सचारी भावों का निर्देश मिलता है। श्रृंगार रस को छोडकर शेप आठ रसों में प्रत्येक में आधे से भी कम सचारी भाष आते हैं, किसी-किसी मे तो चार-पॉच ही। इसीलिये भोजदेव कहते हैं कि रसन शक्ति जैसी शृगार रस में है और जैसा आस्वादित वह होता है अन्य रस नहीं। मैं पहले वतला अाया हूँ कि संसार के प्राणि-मात्र इस रस के रसिक हैं। क्योकि जैसी ही इसकी विस्तृत व्यापकता है, वैसा ही विस्तृत इसका आस्वादन है । शांत रस का म्वाद पशु-पक्षी, कीट- पतग को क्या मिलेगा । हास्य मनुष्य को छोड़कर ससार के किसी प्राणी में नहीं मिलता । विश्व का वैचित्र्य विस्मयमूलक है, यह निश्चय ही अद्भुत रस का जनक है । इस विस्मयका बोध पशु-पक्षी आदि को नहीं -