६८ नाते प्राणियों मे स्वाभाविक आत्मीयता हो सकती है, किंतु अनेक अवसरों पर वेलि, लता, पुप्पादि को दशा पर क्यों करुणा होती है ? तो इसका उत्तर यह है कि मनुष्य ने उन्हों में से होकर मानव-जीवन लाभ किया है, अतएव उनके साथ भी उसकी स्वाभाविक ममता होती है। प्राणि- शास्त्र-विशारद आज इस बात को मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं। दूसरी वात यह है कि वनस्पतियो से मनुष्य जाति का बड़ा उपकार होता है, वे उसके चिर सहचर हैं, उनका प्रत्येक अंश उसके काम आता है। उनके पत्र पुष्प ससार सौंदर्य के सर्वस्व हैं, उनकी हरियाली लोकलोचन विभूति है, ऐसी दशा मे मनुष्य जाति का उनसे स्नेह होना स्वभावसिद्ध है। फिर उनको म्लान और विपन्न देखकर उसका हृदय सकरुण हो तो क्या आश्चर्य । रति से करुण रस की उत्पत्ति में पहले भी सिद्ध कर चुका हूँ। इसलिये शृंगार रस की उत्पत्ति करुण रस से किसी प्रकार स्वीकृत नहीं हो सकती । अन्य रसो के बारे में भी ऐसी बातें कही जा सकती हैं, परन्तु यह प्रस्तुत विपय नहीं है, इसलिये छोड़ता हूँ। हास्य रस के विषय मे मैं पहले लिख आया हूँ कि वह मनुष्य तक परिमित है, इसलिये न तो वह शृगार रस के इतना व्यापक है और न उसके इतना आस्वादित होता है, उसमें सृजन शक्ति भी नहीं है, अतएव वह अपूर्ण और गौणभूत है। यदि शृगार रस जीवन है तो वह है अानंद, यदि वह प्रसून है तो यह है विकास, जिससे दोनो में आधार आधेय का सबंध पाया जाता है, आधेय से आधार का प्रधान होना स्पष्ट है । किसी-किसी का यह तर्क है कि शृगार रस यौवन तक परिमित है, परंतु हास्य रस समान भाव से बाल्यावस्था, यौवन और वृद्धावस्था तीनो में उदित रहता है, इसलिये शृगार पर उसकी प्रधानता क्यो न मानी जावे । इस विचार में एक देश-दर्शन है, क्योंकि शृगार का एकदेशी रूप सामने रखा गया है। तर्ककर्ता ने सर्वदेशी शृंगार रस के व्यापक रूप पर दृष्टि डाली ही नहीं। यदि उसके
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