ce उद्दीपन विभावों को ही सामने रखा जाता तो ऐसी बात न कही जाती। क्या मलयानिल युवको को ही मुग्ध बनाता है, बाल-वृद्ध को नहीं ? क्या इसता हुया मयंक, रम बरसते हुए घन, पुप्प-संभार-विलमित वसंत. पपीहे को पिहक कोकिन्न की काकनी और मयूर का ननन, बालक ओर वृद्ध को आनद निमन्न करने की सामग्री नहीं है ? क्या ललनागण का मौंदर्य वृद्धजनो को विमुग्ध नहीं बनाता, क्या उनका मधुरालाप, उनका मनोहर कठ और उनका न्वर्गीय गान; उनकी सूची चमनियों में रक्त का संचार नहीं करता ? क्या बालिकायो के भोले- भाले रूप का चालकों पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ता ? च्या वे उनकी ललित लोलायो पर मोहित नहीं होते ? फिर इस प्रकार की अनर्गल वाता का क्या अर्थ ? किलो-किसी का यह कथन भी है कि जीवन सुख-दुःख पर ही अवलंवित है, दुःख का रोदन और सुख का हास संवल है। इनलिये जीवन का संबंध जितना करुण रस और हास्य से है, अन्य किसी रस से नहा । कितु शृंगार के प्रन्तित्व में आये विना दुःख-सुख की कल्पना हो हो नहीं सकती; अग्निपुराण के आधार से यह बात प्रतिपादित हो चुकी है और किस प्रकार शृंगार ले हाम्य रस और करण रस की अपत्ति होती है, वह भी बनलाया जा चुका है। फिर इस प्रकार की प्रापत्तियो कहों तक संगत । मेरा विचार है जिस पहलू में विचार किया जावेगा, शृंगार पर हाम्य को प्रधानता न मिल सकेगी। शात रस को कल्पना त्याग और विगगमय है। मनुष्य को दोड़- कर अन्य प्राणियों में इस भाव का अभाव है। मनुष्यों में भी इने-गिने लोगों में हो उनका यधार्थ विकाग देन्या जाता है। अंतर्जगत से इसका जितना संबंध है. इतना बाल्य जगत मे नही । संमार नेत्र में जितना कार्य शृंगार का है. शांत का नहीं । उनीलिये महात्मा भरत ने उनकी गणना रसों में नहीं की. उन्होंने पाठ रल हो माने हैं। बाद के प्राचार्यों ने उनकी गणना ग्मों में की है. किंतु किमी ने उनको सर्व- हैं
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