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पृष्ठ:रसकलस.djvu/१२

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और तदनुसार आचरण भी किया था। उनके ग्रंथों में सिद्धांत-समीक्षा या मीमांसा तो एक प्रकार से गौण और उदाहरण-रचना-कौशल का प्रदर्शन ही प्रधान है। इसके साथ ही कुछ कवियों ने तो रस सिद्धांत का पूरा प्रदर्शन भी नहीं किया, उसके किसी एक विशेप अंग पर ही प्रकाश डाला है। नखशिख-वर्णन और नायक-नायिका का भेद ही प्रायः रचना के लिये प्रधान विषय रहे हैं, जगद्विनोदादिक पुस्तकें इसके उदाहरण हैं। तात्पर्य यह है कि इस विषय की मार्मिक तथा विस्तृत विवेचना को ओर हमारे विद्वानो ने कोई विशेष ध्यान न दिया था।

यद्यपि इस समय इस विषय की दो-चार पुस्तकें हिंदी-साहित्य-सद्म मैं उपस्थित हैं, जिनमें से श्री० अयोध्या-नरेश कृत “रस-कुसुमाकर”, “हिंदी-काव्य में नव रस” एवं “काव्य-प्रभाकर” अति प्रधान और प्रचलित मानी जाती हैं, किंतु वास्तव में ये सव पुस्तके सांगपूर्ण, सुव्यवस्थित तथा वैज्ञानिक विवेचन की दृष्टि से संतोपप्रद नहीं सिद्ध होती। इस प्रभाव की ऐसे सुंदर ग्रंथ के द्वारा स्तुत्य पूर्ति करने के लिये श्रो० उपाध्यायजी को जितना भी साधुवाद दिया जाय, थोडा ही है। इस ग्रंथ-रत्न से उपाध्यायजी कवि-काव्याचार्य-श्रेणी में उच्चस्थान प्राप्त कर अमर यश के भव्य भाजन होते हुए शाश्वत स्मरणीय हो गये हैं।

यथार्थ मे काव्यशास्त्र के ऐसे गूढ़ और जटिल विषयों पर प्रकाश डालने के लिये कमनीय कवि-कर्म-कौशल, काव्य-कला-कोविदत्व और विशद विद्वत्ता की आवश्यकता है। केवल कवि-प्रतिभा ही न तो इमके शान्त्रीय विवेचन में सफल और समर्थ सिद्ध होती है और न केवल विद्वत्ता या आचार्य्यता ही सर्वथा पर्याप्त हो सकती है। वस्तुतः काव्य- शास्त्र के मार्मिक विवेचन के लिये कवि-प्रतिभा और विद्वत्ता दोनों की समान रूप से आवश्यकता है। कहा भी गया है――

“कवि कवयते काव्य मर्म जानाति पंडितः”――तथा――