पृष्ठ:रसकलस.djvu/१४१

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१२४ -) N से मार्मिक हृदय पर अधिकार कर लेती है। इस प्रकार की कविता भावमयी होती है, भाव ही उसका सम्बल होता है, चाहे उसको कोई समझ सके या न समझ सके, चाहे उसका कुछ उपयोग हो या न हो, कितु उसका भाव ही उसका सर्वस्व होता है। मोर जब नर्तनशील होता है, तो उसके मुग्धकर गुणो का विकाश स्वाभाविक होता है, वह लोगों को मुग्ध भी करता है, कितु मयूर इस विषय में यत्नशील नहीं होता। यह विचार सर्वांश में मान्य नहीं, कितु यह कहा जा सकता है कि लग- भग ऐसा हो रहस्य स्वाभाविक कविता में है, वह किसी को विमुग्ध करने की इच्छुक नहीं, कितु उमके नैसर्गिक गुण अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहते । कला के विपय में भी यही कहा जा सकता है । खग कलरव से लेकर सुकविगण की समस्त सूक्तियों तक में कला का चमत्कार दृष्टिगत होता है । जिस दृष्टि से उसका आविर्भाव है, उसी दृष्टि से उसका अवलोकन यथार्थता है, अन्यथा विडम्बना की विकराल मूर्ति ही सामने आती है। एक बात मैं और प्रकट कर देना चाहता हूँ । वह यह कि कला मे हृदय की भावुकता ही नहीं होती, उसमें मस्तिष्क का कार्य कलाप भी होता है। दोनों के साहचर्य से ही कला पूर्णता को प्राप्त होती है। नायिका विभेद की कविता में यथास्थान दोनो का समुचित विकाश देखा जाता है, इसलिये उसकी कविताएँ कला की दृष्टि से बहुत ही उच्च- कोटि की पाई जाती हैं। शृंगार रस की उपयोगिता शृगार रस का मैं जैसा वर्णन कर आया हूँ, उसके उपरात उसकी उपयोगिता का उल्लेख व्यर्थ जान पड़ता है। परतु वात यह है कि नायिका विभेद की कुछ असयत कविताओ के कारण उसका नाम इतना बदनाम हो गया है कि मुझको इस अंश का शीर्पक 'शृगार रस की उपयोगिता', ही देना पड़ा, जिसमे उसके मिथ्या कलक का अपनोदन .