पृष्ठ:रसकलस.djvu/१४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२५ हो सके। वास्तव मे इस शीर्पक मे नायिका विभेद कविताओं और भावो की उपयोगिता का ही वर्णन होगा। कला की दृष्टि से तो इस विपय की रचनाओ पर कोई दोप लगाया नहीं जा सकता, यह बात मैं ऊपर लिख आया है। यदि यह सच है कि कला कला के लिये है, तो उपयागिता का प्रश्न उपस्थित हो ही नहीं सकता। कितु इस प्रकार की रचनाओ की उपयोगिता भी अल्प नहीं, इसलिये मैं उसपर भी कुछ लिखना आवश्यक समझता हूँ। संस्कृति को जड़ साहित्य है, चाहे यह साहित्य कण्ठगत नागरिक अथवा ग्रामीण गीत हो, या पुस्तकगत नाना प्रकार की रचनाओ का समूह । साहित्य का वातावरण जैसा होता है, जाति तदनुकूल ही वनती है। जैसे भावो का पोपण साहित्य करता है, जाति अथवा समाज मे वैसे ही भाव स्थान पाते है। कहा जाता है, जाति के भावो और विचारों का परिचय साहित्य से मिलता है, कारण इसका यह है, कि जाति के संस्कारो के आधार वे ही होते हैं। मनुष्य के संस्कार धीरे-धीरे बनते हैं उनका प्रारंभ माता की गोद से होता है, परंन्तु साहित्य और शिक्षा का प्रभाव भी उनपर कम नहीं पड़ता। मानस लोरियो और कथानको से ही गठित नहीं होता, वह साहित्य के विविध रसो में भी पगता रहता है। पुरुष हो चाहे स्त्री, दोनो ऐसे खिलौने है, जो साहित्य- कुंभकार के हाथो के गढ़े है। यह निर्माण क्रिया चिरकाल से होती आई है, और प्रलय काल तक होती रहेगी। लड़कियॉ जव मॉ के कठ का मधुर गाना सुनती है, उस समय वे बहलती ही नहीं, कुछ सस्कृति संचय भी करती हैं। लड़के जब पुस्तको का पाठ पढ़ते हैं, उस काल उनकी शिक्षा ही नहीं होती, उनके हृदय पटल भी खुलते हैं। युवक और युवतियों से जब कविता पाठ कराया जाता है, तब उसका उद्देश आनंद लाभ करना ही नहीं होता, उनके चरित्र और भावो का निर्माण भी उस समय सामने रहता है। यदि स्त्री