है इसलिये यह पद्य प्रमाण कोटि मे नहीं गृहीत हो सकता। तो निम्नलिखित पद्य लिया जावे- क्यों हूँ न याम जनास है जात रिझावत ऐसी रहैं रतिश्रान मैं। देखत ही मन टूटि परै कछु राखहि ऐसी छटा छतिआन मै। ए 'हरिऔध' करो कितनो हूँ विलव पै होत नहीं पतिआन में। बीस गुनी मिसिरी ते मिठास है बार विलासिनी की बतियान मै॥ क्या इस पद्य के पढ़ने से यह नहीं ज्ञात होता कि वैसिको का कितना पतन हो जाता है। उसके पतन का चित्र ही तो इस पद्य के पद- पद मे अंकित है, उनकी कामुकता का ही वर्णन तो इसमे है। फिर उनको कौन निदनीय न समझेगा, ऐसे ऐसे पुरुपो की ओर दृष्टि फेर कर सर्वसाधारण को सावधान करना ही तो इस पद्य का उद्देश है, फिर वह उपयोगी क्यो नहीं। यदि कहा जावे किसी कुलांगना के हाथ में यह पद्य नहीं दिया जा सकता, तो मैं कहूंगा यदि उनको अपने पात पुत्र को पतन से बचाने का अधिकार प्राप्त है, यदि उनको इस विपय मे सावधान रखना है, तो उनके सामने इस पद्य को अवश्य रखना चाहिये । जिससे उनकी ऑखें खुली रहें, और वे अपने पति, पुत्र की रक्षा इस कुमार्ग से कर सकें। इस पद्य मे जितना प्रलोभन है, उतनी ही उसमे सतर्कीकरण की शिक्षा है। बुराई का यथार्थ ज्ञान होने पर ही, उससे पूरी तौर पर कोई बचाया जा सकता है। नायिका विभेद के ग्रंथो मे उच्च कोटि के पुरुषो के वर्णन के साथ जैसे अधम से अधम पुरुपो का निरूपण भी किया गया है, उसी प्रकार पूज्य पतिव्रता स्त्रियों के साथ गणिकाओ तक का विवरण है। कारण इसका यह है कि तुलना का अवसर हाथ आने पर ही हमें भले बुरे का ज्ञान होता है। राका निशा का यथार्थ ज्ञान तमोमयी अमा कराती है, और अरुण राग रंजित ऊषा की विशेपताओं को कालिमामयी संध्या ही वतलाती है । काक और पिक का क्या अंतर
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