१४१ कल्पना बड़ी सुंदर कल्पना है। उसमे इतनी मोहकता है कि निर्गुण- वादी संतो ने भी उसकी ममता नहीं छोड़ी। जो साकारता की चर्चा होने पर कानो पर हाथ रखते हैं, उनको भी परमात्मा को पति और अपने को पनी मानकर मानसिक उद्दारो को प्रकट करते देखा जाता है । वास्तव में स्वकीया का जीवन बड़ा ही उदात्त, त्यागमय एव प्रेममय है। उसकी कामनाएं बड़ी ही मधुर और भावमय है; अतएव उसके हृदयोद्वार अनेक अवसरो पर बड़े ही आकर्पक होते हैं। कुछ असहृदय उनको सुनकर भले ही नाक-भौंह सिकोड़े, कितु ससार इस रस मे निमग्न है। यहाँ तक कि जो ससार-त्यागी हैं वे भी अपनी मानसिक व्यथाओ और आकुलताओ को पत्नी का भाव ग्रहण कर ही लोक-पति तक पहुंचाते हैं। कबीर कट्टर निराकारवादी हैं। जरा उनकी बाते सुनिये-उनकी उक्ति कितनी मर्मस्पर्शिनी है, और वे किस प्रकार स्वकीया-हृदय के भावो को व्यंजित करते हैं। यह बात उनके गान का एक-एक पद ध्वनित कर रहा है- तोको पीव मिलेंगे घूघट को पट खोल रे । घट घट में वह साई रमता कटुक वचन मत बोल रे । धन जोबन को गरब न कीजै झूठा पचरँग चोल रे । सुन्न महल में दियना वारि ले आसा सों मत डोल रे । जोग जुगुत सो रगमहल में पिय पायो अनमोल रे । कहै 'कवीर' अनंद भयो है वाजत अनहद टोल रे ॥ १ ॥ मिलना कठिन है कैसे मिलौगी पिय जाय । समुझि सोचि पग धरी जतन से बार बार डिग जाय । ऊँची गैल राह रपटीली पॉव नही ठहराय । लोक लाज कुल की मरजादा देखत मन सकुचाय ।
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