पृष्ठ:रसकलस.djvu/१५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४२ नैहर बास वप्ता पीहर में लाज तजी नहिं जाय । अधर भूमि जहँ महल पिया का हम पे चढो न जाय । धन भई बारी पुरुष भये भोला सुरत झकोरा खाय । दूती सतगुरु मिले बोच मैं दीन्हों भेद बताय । साहब 'कबिर' पिया सों मेट्यो खीतल कठ लगाय ॥२॥ बालम आओ हमारे गेह रे। तुम बिन दुखिया देह रे॥ सब कोइ कहै तुम्हारी नारी मोको यह सदेह रे । एक मेक है सेज न सोवे तब लग कैसो नेह रे । अन्न न भावै नींद न आवै गृह बन धरे न धीर रे । ज्यों कामी को कामिनि प्यारी ज्यों प्यासे को नोर रे । है कोउ ऐसा पर उपकारी पिय से कहै सुनाय रे । अब तो वेहाल 'कबीर' भये हैं बिन देखे जिउ जाय रे ॥ ३ ॥ सपने में साई मिला सोवत लिया जगाय । आँख न खोलू डरपती मत सपना है जात ॥ ४ ॥ म्वकीया के विपय मे अधिक तर्क-वितर्क भी नहीं किया जाता। अतएव मैं परकीया और गणिका के विपय को लेता हूँ। कहा जाता है, इन दोनो नायिकाओं का वर्णन करके ब्रजभाषा ने उच्च आदर्शों का तिरस्कार किया है। प्रश्न यह है क्या ब्रजभापा द्वारा ही इन दोनो नायिकाओ की वर्णना हुई है? यह भी तो संस्कृत-साहित्य से ही ब्रज- भापा में आई हैं, इसलिये इन दोनो नायिकाओं का निरूपण भी साहित्यशास्त्र के नियमानुसार परंपरागत है, इसमें ब्रजभापा का क्या अनौचित्य ? जब मैं परंपरा की बात कहता हूँ तो इसका यह अर्थ न