इसी अध्याय मे १५, १६, १७ श्लोको में उन्होने स्त्रियो के सत्तरह भेद बतलाये हैं। वे ये हैं महादेवी, देवी, स्वामिनी, स्थापिनी, भोगिनी, शल्पकारी, नाटकीया, नर्तकी, अनुचारिका, परिचारिका, संचारिणी, प्रेपणचारिका, महत्तरी, प्रतीहारी, कुमारी, स्थविरा, श्रायुक्तिका फिर अनुरक्ता, विरक्ता आदि कुछ और नायिकाए उन्होंने गिनाई है और सबो के लक्षण बतलाये हैं। उनके देखने से लगभग सब नायिकाएँ उनमें आ जाती हैं। जिनका वर्णन उक्त ग्रंथकारो ने किया है। इससे पाया जाता है कि परकीया अथवा गणिका की वणना आधुनिक नहीं है, वरंच बहुत प्राचीन है। प्राचीन होने से ही कोई विपय श्लाघनीय अथवा अभिनदनीय नहीं होता, इसलिये विचारणीय यह है कि साहित्य मे परकीया और गणिका का ग्रहण कहाँ तक युक्ति संगत है। जव मैं किसी विषय के परंपरागत अथवा प्राचीन होने पर जोर देता हूँ तो उसका अर्थ यह होता है कि उनके उद्भावक वे हैं, जो विश्वबंधु और सत्यव्रत कहे जा सकते हैं। ऐसी अवस्था मे वे तर्क योग्य नहीं। फिर भी में प्रस्तुत विषय की ओर प्रवृत्त होता हूँ। कहा जाता है कि परकीया का श्रादर्श ही बुरा है, यह ऐसा आदर्श है जो कुलांगनाओ को मार्गच्युत कर सकता, उनको भ्रांत बना सकता और निष्कलंक कुल में कलंक लगा सकता है। जो कुछ कहा गया उसमे सत्यता का अंश है, कितु सांसारिकता विल्कुल नहीं । प्रेम वड़ा रहस्य- मय है, प्रेमपरायण हृदय समाज का बंधन क्या किसी वंधन को नहीं मानता, ऐसे उदाहरण नित्य हमारी आँखों के सामने आते रहते है। हम ऑखे छिपा सकते हैं, कितु घटना बिना हुए नहीं रहती। हृदय से हृदय का सम्मिलन स्वाभाविक है, सत्य है, विधि का अनुल्लंघनीय विधान है। लौकिक नियम उसका नियंत्रण कर सकता है, कितु उसकी सीमा है। जहाँ सीमोल्लंघन होता है वहाँ यह नियम टूट जाता है। इन वातो पर दृष्टि रख कर ही सिद्धांतों अथवा आदर्शी की मीमांसा हो १०
पृष्ठ:रसकलस.djvu/१६०
दिखावट