पृष्ठ:रसकलस.djvu/१७४

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१५६ 4 गई थी, जिससे उनका प्रेम पूर्णता को प्राप्त हो चुका था । राधिका उसी प्रेम भक्ति में उल्लासिनी और कृष्ण लीलामयी हो गई थीं। उनके लिये कृष्ण का प्रेम ही ससार था, वही उनका सर्वस्व था । कृपण ही गधा के धन, सुख और चिता थे. वे श्याम के प्रेम मे ही मत्त थीं।" श्रीमती राधिका की इस महिमामयी मूर्ति को ब्रजभाषा के थोड़े से ही कवियो अथवा महाकवियो ने पहचाना, अधिकांश ने उनकी एवं भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओ को साधारण दृष्टि से ही देखा और साधारण दृष्टि से ही उनको अंकित किया। इस प्रकार के कविगण भी अधिक उपालंभ योग्य नहीं, क्योकि फिर भी उनकी रचनाएँ अमर्यादित नहीं । दु ख उन कवियो के कृत्य पर है, जिन्होने साधारण विपयी पुरूप स्त्री के समान उनके चरित्रो को अकित किया और इस प्रकार पवित्र श्रृंगार रस का दुरुपयोग करके ब्रजभाषा को भी कलंकित बनाया । माता-पिता की बिहार-संबंधी अनेक बातें ऐसी हैं, जिनको पुत्र अपने मुख पर भी नहीं ला सकता, उनके विषय में अपनी जीभ भी नहीं हिला सकता, क्योंकि यह अमर्यादा है। देखा जाता है, आज भी कोई पुत्र ऐसा करने का दुस्साहस नहीं करता। फिर भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीमती राधिका के हास-विलास का नग्न चित्र क्यो अंकित किया गया ? क्या वे जगत् के पिता माता नहीं और हम लोग उनके पुत्र नहीं ? क्या ऐसा करके बड़ा ही अनुचित कार्य नहीं किग ? खेद है कि ऐसी धृष्टता उन्हीं कवियों के हाथ से अधिकतर हुई जिन्होने नायिका भेद के ग्रंथ लिखे। उन्हीं लोगों के कारण ही आज- कल नायिका भेद की रचनाओ की इतनी कुन्सा हो रही हैं। नायक के रूप में मुरली मनोहर और नायिका के रूप में श्रीमती राधिका का ग्रहण किया जाना, उनके लिये अनर्थों का मूल हुआ। इस अविवेक का कहीं ठिकाना है कि करते हैं छीछालेदर जगत् के माता-पिता की और समझते हैं, उसको पविन भगवत् सुयश-गान ! उत्तर काल में यह