१६४ . इतना ही नहीं, इस युगल मूर्ति के प्रेम और मधुर लीलाओं के रस का प्रवाह मर्यादित एवं सयत रामावत संप्रदाय में भी बहा । पहले पहल 'हरि' नामक संस्कृत के एक सुकवि और सहृदय विद्वान् ने 'जानकीगीतम' नामक एक गीति काव्य लिख कर 'गीतगोविद' का सफल अनुकरण किया। अभी इनका काल निश्चित नहीं हुआ, कितु इन्हें विलास वर्णन और सरस पद विन्यास मे गीतगोविंदकार का समकक्ष कहा जा सकता है। उनका एक पद्य देखिये-यह पद्य गीतगोविद के 'ललित लवगलता परि- शोलन कोमल मलय समीरे गीत के आधार पर लिखा गया है- मृदुल रसाल मुकुल रसतुदिल पिकनिकरस्वन भासे माधविका सुमना नव सोरम निर्भर सकलिताशे ।। बिलसति रघुपति रति सुख पुजे । निर्मल मलयज कुकुम पक्लि तनुरिह वरतनु पुजे । विषम विशिख कर नखर निचय सम किशुक कुसुम कराले। मानवतीगणमानविदारिणि चञ्चलमधुकरजाले ॥ धृत मकरन्द सुगध गधवह भाजि विराजित शोमे । विविध वितान कान्ति परिशीलन जनित युवति जन लोमे। हरि परिरचितमिद मधुवणन मनु रधुनाथमुदारम् । पिवत बुधा मधु मधुर पदार्शल निरुपम भजनसुघारम् ॥ ऐसा करना उचित हुआ अथवा अनुचित, यह अन्य विषय है । कितु इसका अनुकरण बहुत हुआ। साकेतपुरी-लक्ष्मण टीला के प्रसिद्ध महत युगलानन्यशरण इसके प्रभाव से विशेष प्रभावित हुए। उन्होंने श्रीमती जानकी देवी और उनकी सखियो को लेकर भगवान रामचंद्र का रास-मडल तक लिख डाला । उनकी एवं उन्ही की मडली के कतिपय नहृदय कवियों की रचनाएँ अष्टछाप के वैष्णवो की रचनाओं-सी ही सरस है । कितु उनमे वास्तविकता कहाँ, काया काया है और छाया 3
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