१६६ . मिलते। सुबह विलासिता भी कपित होती है। जहाँगीर और शाहजहाँ की बातें किससे छिपी हैं। औरंगजेब जो बडा मजहबी आदमी समझा जाता है, उसकी सेना के वर्णन में एक अँगरेज़ ने लिखा है कि वह रंडी, भड़बो से भरी रहती थी। सिपहसालारो और सिपाहियों की यह अवस्था थी कि हथियार पीछे रह जावे तो मुजायका नहीं, पर क्या मजाल कि 'साजेतरव' हाथ से छूटे । प्रायः लोग नशे मे चूर और मखमूर को दवा खाते, और रात मे नीद न आने की शिकायत करते पाये जाते । परिणाम यह हुआ कि औरंगजेब की आँख बंद होते ही राजकुल की विलासिता इतनी बढ़ी कि उसने वादशाही को ही निगल लिया । मुसलमानो को विलासिता की पराकाष्ठा वाजिद अलीशाह मे दृष्टिगत होती है, जिसने उसपर अपने 'तख्तोताज' तक को निछावर कर दिया । यह विलासिता ब्रजभापा मे भी घुसी, और उसने उसके साहित्य ग्रथों के कुछ अंगो को उपहास योग्य बना दिया। कारण सामयिक प्रभाव और उस काल के लोगो का मनोभाव है। जैसा समाज होता है, अधि- कांश साहित्य का रूप वैसा ही होता है । शासक जब विलासिता-प्रिय है, और उसके साधनो को प्रश्रय देता है, तो अनेक कारणो से शसित मे उसका प्रसार हुए विना नहीं रहता । शासित को कुछ तो उसकी मन- -न्तुष्टि के लिये उसके जैसा बनना पड़ता है, कुछ अपने स्वार्थ-साधन के लिये और कुछ उसके संसर्ग प्रभाव से प्रभावित होकर । औरंगजेब के बाद का सौ वर्ष का काल ले ले, तो ज्ञात हो जावेगा कि इन सौ वर्षों मे भी ब्रजभाषा को लांछित करनेवाली कम कविताएँ नहीं हुई। मैं यह म्वीकार करूँगा कि इस प्रकार की कुछ कविताएँ अपनी भाषा की मान रक्षा के लिये भी हुई हैं, क्योकि प्रतिद्वंद्विता का अवसर आने पर कोई कितना ही दवा क्यो न हो पर अपने धन-मान की रक्षा का उद्योग करता ही है। कहा जाता है कि कविवर विहारीलाल के अधिकांश दोहे उर्दू अथवा फारसी शेरों को बलंदपरवाज़ियो को नीचा दिखाने के लिये ही
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