पृष्ठ:रसकलस.djvu/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७२ प्रवर पद्माकर आदि रगे हुए थे। ब्रजभाषा ही उनकी आराध्या देवी है, और वे उसकी अर्चना में ही निरत हैं। उनकी अधिकाश रचनाएँ नायक नायिकाओ पर ही होती हैं, या वे अपने ढंग पर भगवान कृष्ण- चद्र अथवा मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र का गुण गा-गाकर अपनी मसार- यात्रा समाप्त कर रहे हैं। आज कल देश को क्या दशा है, देश मे क्या हो रहा है, देशवासियो पर क्या बीत रही है, और किस प्रकार दिन- दिन हिदू जाति का पतन हो रहा है, उनको इन बातो से प्रयोजन नहीं । देख कर भी इन बातो का वे नहीं देखते, और सुनाने पर भी उनको सुनना नहीं चाहते। वे अपने रॅग मे मस्त हैं, अपने धुन के पक्के हैं, उनको दुनिया के झगडो से प्रयोजन नहीं । खडी बोली की कविता कितनी ही सुदर क्यो न हो, परतु उनकी दृष्टि मे उसका कोई आदर नहीं, वे उसे रूखी-सूखी भाषा समझते हैं, फिर अपनी रसमयी व्रजभाषा को छोड कर उसकी बार क्यो दृष्टिपात करें। वे अपनी शाति को भग करना नहीं चाहते । परतु जब कोई प्राचीन कवियो पर आक्रमण करता है, ब्रजभापा को खरी-खोटी सुनाता है, तब उनके धैर्य का बॉध टूट जाता है, और उस समय जो कुछ मुँह मे आता है कह डालते हैं। वे छायावाद की कविताओ को फूटी ऑखो से भी देखना नहीं चाहते, चाहे उनमे म्वर्ग-सौंदर्य ही क्यो न भरा हो । वे छायावादियो को कवि भी नहीं मानते, क्योकि वे समझते हैं कि ऊटपटाग वकने के सिवा उनको श्राता ही क्या है । उनमें अजब बेपरवाई है, और कुछ ऐसी अकड भरी हुई है, कि वे अपनी रूई सूत मे ही उलझे रहते हैं, दूसरी बातो की और अॉख उठाकर भी देखना नहीं चाहते । इस समय देश के प्रति समाज के प्रति, जाति के प्रति और मानव समुदाय के प्रति उनका क्या कर्नव्य है, इन बातो को वे विचारना भी नहीं चाहते, या विचार ही नहीं नकते। वे किमी राह के रोड़े भो नहीं, यदि कोई दूसरा उनको अपनी राह का रोडा न बना ले | इस दल मे अधिकतर वयोवृद्ध हैं जो निश्चित