पृष्ठ:रसकलस.djvu/१९०

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१७५ अच्छा नहीं, ये तो भाई-भाई हैं। उनके क्षीर-नोर समान मिले रहने मे ही भलाई है। प्राचीनो के लिये यदि स्थान है, तो आधुनिक लोगों के लिये भी । यदि गुरु का स्थान है, तो शिप्य का भी। किसी काल में गुरु भी शिप्य था, काल पाकर शिप्य भी गुरु हो सकता है। योग्य शिष्य ससार मे कभी-कभी गुरु से भी अधिक चमके, पर वे गुरु की गुरुता को कभी नहीं भूले । परमात्मा ने जिनको प्रतिभा दी है, वे प्रकाशमान होकर ही रहे । उनको यह इच्छा कभी नहीं हुई कि गुरु की कीर्ति को लोप कर हम अपना मुख उज्ज्वल करें। जो प्राचीनों की कुत्ता इसलिये करते है कि उनकी कीर्ति को मलिन कर अपनी कीर्ति का विकाश करे, वे भूलते हैं। मयंक यदि सूर्य के प्रकाश की महत्ता स्वीकार न करेगा तो उसकी सत्ता ही न रह जावेगी, उनका विचार है कि जो सहृदय है. उसकी असहृदयता अच्छी नहीं, जो रम-धारा वहा सकता है, वह नीरस क्यों बने? इन तीनों दलों में कैसा मचि वैचित्र्य है, और कैसी विचार भिन्नता। परंतु शृंगार रस के प्रभाव से तीनो ही प्रमावित है। पहले दलवाले आज भी उसी नशा की झोंक में हैं, जिस नशा ने उनकी परंपरा बालो को आज से तीन चार सौ बरस पहले बदमस्त बनाया था। न आज वह महफिल है, न वह साकी. न वह पैमाना है, न वे दूसरे सामान । फिर भी उनको नशा आता है, और वे ऐसी बाते वक जाते हैं, जिनको अब जवान पर न आनी चाहिये। भगवद्गुणानुवाद गाये जाये, नीति की बातें कही जावें, शृंगार रस का सयत भाव मे वर्णन किया जाचे, इसमें किसको क्या आपत्ति हो सकती है; परंतु अब ऐसी रचनाए न की जावें, जो शृंगार रस के साथ ब्रजभाषा को भी कलंकित करती हैं। मातृ-भूमि की सेवा करना सब का धर्म है, उसके गाढ़े दिनों मे काम आना प्रधान कर्त्तव्य है । यदि यह न हो सके और लेखनी इस प्रकार का विचार लिखने में कुंठित हो, तो समाज में गंदगी फैलाने से 2