१८ह v नहीं मानते । इस भाव ही को नहीं, बड़ो का छोटो के प्रति जो अनुरागा होता है, उन सबको वे वात्सल्य कहते हैं और 'रति' स्थायी भाव मे उनका अंतर्भाव करते है। उन लोगो का विचार है कि रस का जितना परिपाक श्रृंगार मे होता है, वात्सल्य मे नही, अतएव इसको वे 'भाव' ही मानते हैं, रस नहीं । कुछ सम्मतियाँ देखिये- काव्यप्रकाशकार ने रसो का नाम उल्लेख करने के पहले लिखा है- "तद्विशेषानाह"। इसकी व्याख्या करते हुए, 'बालबोधिनी' टीकाकार लिखते हैं- "केचिदाहुरेक एव शृगारो रस इति । केचिच्च प्रेयासदातोद्धतैः सह वक्ष्यमाणा नवेति द्वादशरमाः । तत्र स्नेहप्रकृतिक. प्रेयासः । अयमेव वात्सल्य इति बोध्यम् । धैर्य स्थायीभावको दांतः, गवस्थायीभावक उद्धतः । तन्मनिरासाय सामान्य- ज्ञानोत्तर विशेषजिजासोदयाच्च वृत्तिकृदाह-तद्विशेषानाहेति-तविशेषान् तस्य रसस्य विशेषान् भेदान् । रससामान्यलक्षण तु रसत्वमेव, न च तत्र मानाभावः, रसपदशक्यतावच्छेदकतया तसिद्धेः” । किसी की सम्मति है कि एक शृगार रस ही रस है। किसी ने प्रेयांस दांत, उद्धृत के साथ वर्णित नवरस को द्वादश रस माना है। जिस रस का स्थायी म्नेह हो उसको प्रेयांस कहते हैं, इसीका नाम वात्सल्य है। जिसका स्थायी धैर्य है, उसको दांत, जिसका स्थायी गर्व है उसको उद्धत कहा गया है । इन मतो के निरसन के लिये और सामान्य ज्ञान के उपरांत विशेष जिज्ञासा उदय होने पर वृत्तिकार कहते हैं "तद्विशेषानाह"- उस रस के विशेष भेदों को बतलाता हूँ। रस का सामान्य लक्षण रसत्व है, इसके लिये प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, रस पद की शक्यता से ही वह सिद्ध है। एक दूसरे स्थान पर वे लिखते है- प्रेयासादित्रयस्तु भावातर्गता इति भाव । एतेनाभिलापस्थायिको लौल्यरस 7
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