पृष्ठ:रसकलस.djvu/२१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६७ "केहो केहो वात्सल्यको रस बलियाथाकेन, तन्मते रस दश प्रकार !"-"कोई-कोई वात्सल्य को भी रस कहते हैं, उनके मत से रस दश प्रकार का होता है।" साहित्यदर्पणकार ने वत्सल को रस मानने का कारण उसका स्पष्ट चमत्कारक होना बतलाया है, साथ ही उसको मुनीसम्मत भी लिखा है। मेरा विचार है कि वत्सल मे उतना स्पष्ट चमत्कार नहीं है, जितना भक्ति मे, कितु उसको उन्होने भी रस नहीं माना। वाबू हरिश्चंद्र ने भक्ति वा दास्य लिखकर उसको दास्य तक परिमित कर दिया है, किंतु भक्ति बहुत व्यापक और उदात्त है, साथ ही उसमे इतना चमत्कार है, कि शृंगार रस भी उसकी समता नहीं कर सकता । वैष्णव विद्वानो ने भक्ति को रस माना है, और अन्य सब रसो से उसको प्रधानता दी है। प्राचार्यवर सधुसूदन सरस्वती अपने 'भक्तिरसायन' नामक ग्रंथ मे लिखते हैं- "रसातरविभावादिसकी भगवदतिः । चित्ररूपवदन्याग्रसता प्रतिपद्यते ॥ रतिवादिविपया व्यभिचारी तथा जितः । भावः प्रोक्तो रसो नेति यदुक्त रसकाविटैः ।। देवातरेषु जीवत्वात् परानदाप्रकाशनात् । तद्योज्य-परमानदरूपेण परमात्मनि ॥ कातादिविपया वा ये रसाद्यात्तत्र नेहशम् । रसत्व पुप्यते पूर्णसुखापनित्यकारणात् ।। परिपूर्णरसा नद्ररसेभ्यो भगवदतिः । खद्योतेभ्य इवादित्यप्रमेव बलवत्तरा ॥" अन्य रसो के समान विभावादि से युक्त होकर भक्ति चित्र-फलक के सदश मनारंजन बनकर रसत्व को प्राप्त होती है। रसकोविदो ने देवादिविषयक रति और अंजित व्यभिचारी को भाव बतलाया है-रस नहीं, कितु इस विचार को अन्य देवताओ तक ही परिमित समझना 66