१६६ ग्रहण करना पड़ता है। निर्गुणवादी होकर भी कबीर साहब को इस पथ का पथिक होना पड़ा है। उनको तीनो रूपो में परमात्मा को स्मरण करते देखा जाता है, कितु पत्नी भाव की उनकी उपासना बहुत ही हृदयग्राहिणी है। यह उपासना माधुर्यमयी है, इसकी वेदनाएँ मर्म- स्पर्शिनी होती हैं, अतएव उनमे विचित्र रस-परिपाक पाया जाता है। कबीर साहव की निम्नलिखित रचनाओ मे कितनी मार्मिकता है आप लोग स्वयं उसका अनुभव कीजिये- विरहिन देय सँदेसरा सुनो सँदेसरा सुनो हमारे पीव ५ जल बिन मछली क्यों जिए पानी में का जीव ।। अँखियाँ तो माई परी पथ निहार निहार । जीहाड़ियाँ छाला पहा नाम पुकार पुकार || विरहिन उठि उठि भुइ परै दरसन कारन राम । मूए पाछे देहुगे सा दरसन केहि काम ॥ मूद पाछे मत मिलौ कहै कबीरा राम । लोहा माटी मिल गया तब पारस केहि काम || सब रग ताँत रखाव तन बिरह बजावै निर। और न कोई सुन सकै कै साई के चित्त ॥ पिया मिलन की आस रही कर लो खरी। ऊँचे नहि चढ़ि जाय मने लज्जा पाँव नहीं ठहराय चढ़े गिरि गिरि परूँ। फिरि फिरि चहुँ सम्हार चरन आगे धरूँ ॥ अग अग यहराय तो · बहुविध डरि रहूँ। करम कपट मग घेरि तो भ्रम मे परि रहूँ ।। बारी निपट अनारि तो झीनी गैल है। अटपट चाल तुम्हार मिलन कस होइ है।। भरी॥
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