पृष्ठ:रसकलस.djvu/२२२

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२०७ कहा जाता । इस विषय में पंडितराज जगन्नाथजी ने भी उसका पक्ष नही लिया । तो भी अनेक वैष्णव विद्वानो ने उसके रस-प्रतिपादन का उद्योग किया है और यह बड़े हर्प की बात है। बात्सल्य रस के प्रसंग में भक्तिरस पर कुछ लिखना विषयांतर था। कितु मैंने वात्सल्य रस का पक्ष पुष्ट करने के लिये ही यह कार्य किया है। मैं कहना यह चाहता हूँ कि जब भक्ति जैसे प्रधान रस की उपेक्षा हो सकती है, तो वात्सल्य रस का उपेक्षित होना आश्चर्यजनक नहीं । मैं पहले दिखला आया हूँ कि वात्सल्य को कुछ प्रसिद्ध विद्वानो ने रस माना है । अब मैं देखूगा कि उसमे रस होने की योग्यता है या नहीं। किसी भाव को रस मानने के लिये यह आवश्यक है कि वह विभाव, अनुभाव और सचारी भावों द्वारा परिपुष्ट हो । यह बात वत्सल रस में पाई जाती है । साहित्यदर्पणकार लिखते हैं- "स्फुटं चमत्कारितया वत्सल च रस विदुः । स्थायी वत्सलतास्नेहः पुत्राद्यालंबन मतम् ।। उद्दीपनानि तच्चेष्टा विद्याशौर्यदयादयः । आलिंगनागसंस्पर्शाशिरश्चुवनमीक्षणम् Il पुलकानदवाष्पाद्या अनुभावाः प्रकीर्तिताः। संचारिणोऽनिष्टशंकाहर्षगर्वादयो मताः॥ "प्रकट चमत्कारक होने के कारण कोई-कोई वत्सलरस भी मानते हैं। इसमें वात्सल्य स्नेह स्थायी होता है। पुत्रादि इसके आलंबन और उसकी चेष्टा तथा विद्या, शूरता, दया आदि उद्दीपन विभाव हैं। प्रालि- गन, अंगस्पर्श, सिर चूमना, देखना, रोमांच, आनंदाश्र आदि इसके अनुभाव हैं। अनिष्ट की आशंका, हर्प, गर्व आदि संचारी माने जाते हैं।" यदि कहा जावे कि अपने विभाव, अनुभाव आदि के द्वारा स्थायी वत्सलता स्नेह उतना परिपुष्ट नहीं होता जो रसत्व को प्राप्त हो तो यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती। यह सच है कि उद्बुद्धमान कोई