पृष्ठ:रसकलस.djvu/२२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

स्थायी भाव तव तक रस नहीं माना जा सकता जब तक उसमें स्थायिता' और विशेष परिपुष्टि न हो, कितु जो रस माने जाते हैं, उनसे वत्सलरस किसी बात मे न्यून नहीं है, उसमें भी विशेप स्थायिता और रस- परिपुष्टि है । काव्यप्रकाशकार ने रस के जो व्यापक और मनोभावद्योतक लक्षण बतलाये हैं, उनपर मै वात्सल्य रस को कसता हूँ। आशा है उससे प्रस्तुत विषय पर यथेष्ट प्रकाश पड़ेगा । वे लक्षण ये है- (१) रसो का आस्वाद पानक रस समान होता है, (२) वे स्पष्ट झलक जाते है, (३) हृदय मे प्रवेश करते है, (४) सर्वांग को सुधारस- सिंचित बनाते हैं, (५) अन्य वेद्य विपयो को ढक लेते हैं, ६) ब्रह्मानद के समान अनुभूत होते हैं और (७) अलौकिक चमत्कृति रखते हैं। पानक रस किसे कहते है, पहले मै यह वतला चुका हूँ। अनेक वस्तुओ के सम्मिलन से जो रस बनता है, उसका स्वाद से उन भिन्न- भिन्न वस्तुओ से भिन्न और विलक्षण होता है उसी प्रकार विभाव, अनु- भावादि के आधार से बने हुए रस का आस्वाद भी उन सबो से अलग और विलक्षण होना चाहिये । वात्सल्य रस मे यह बात पाई जाती है। बालको की बालक्रीड़ा देखकर माता पिता में जो तन्मयता होती है, वह अविदित नहीं । उनकी तोतली वातो को सुनकर उनके हृदय मे जो रस- प्रवाह होता है, क्या वह अपूर्व और विलक्षण प्राम्बादमय नहीं होता? माता पिता को छोड दीजिये, कौन मनुष्य है जिसे बाललीला विमोहित नहीं करती ? देखिये, निम्नलिखित पद्य मे इस भाव का विकास किस सुदरता मे हुआ है- बर दत की पगति कुदकली अघराघर पल्लव खोलन की। चपला चमकै धन बीच जगै छवि मोतिन माल अमोलन की। धुवुरारी लटें लटके मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलन की। निवछावर प्राण कर तुलसी वलि जाउँ लला इन बोलन की ॥ वात्मल्य स्नेह विभाव, धुवुरारी लटे, बालन आदि उद्दीपन, मधुर