कृत वितंडावाद के समक्ष समर्थन भी किया गया है। इससे खड़ी बोली के विद्वान् विधायक आचार्य उपाध्यायजी का ब्रजभाषा में विशद एवं मार्मिक अध्ययन तथा ज्ञानानुभव स्पष्टतया प्रकट होता है। इसी प्रकार इसी भूमिका में आपने शृंगार रस पर किये जानेवाले कड़े कटाक्षों की भी निस्सारता और निर्मूलता दिखलाई है और उसे सतर्क रसराज सिद्ध किया है। ऐसा करके वस्तुतः उपाध्यायजी ने भूले हुए नवयुवकों की आँखें खोल दी हैं और उन्हें ब्रजभाषा तथा उनके श्रृंगारात्मक काव्य-कौशल का सच्चा मर्म समझा दिया है, अब कोई समझे, या न समझे, माने चाहे न माने।
मूलग्रंथ, चूँकि रीति-ग्रंथों की परम्परागत रचना-शैली से लिखा गया है, इसलिये उसमें रस-सिद्धांत से संबंध रखनेवाले विविध मत- मतांतरों, उनके आधार पर होनेवाले क्रमिक विकास आदि की सम्यक् समीक्षा या मीमांसा नहीं की गई और इस प्रकार विषय-विवेचन का एक अत्यंत आवश्यक या अनिवार्य अंग रह गया था। अतएव उपाध्यायजी ने अपनी भूमिका में (जिसका कार्य वस्तुतः विषय में प्रवेश कराना और उसके संबंध की अन्य आवश्यक बातों का यथेष्ट निरूपण या स्पष्टीकरण करते हुए समुचित परिचय देना है) इन सब बातो का बड़ा ही मार्मिक और पांडित्यपूर्ण विवेचन किया है और इस न्यूनता की परमोपयोगी तथा परमावश्यक पूर्ति कर दी है। भूमिका के इस अंश से उपाध्यायजी के प्रगाढ़ पांडित्य, विस्तृताध्ययन तथा पूर्ण ज्ञान का स्पष्ट रूप से पता चलता है।
इस प्रकार रस-सिद्धांत के हिंदी मे एक सर्वोपरि, सर्वमान्य तथा सर्वथा श्लाघनीय ग्रंथ के उपस्थित करने पर हम उपाध्यायजी को सहर्प हृदय से बधाई देते हैं और मुक्तकंठ से उनके सफल श्रम की प्रशंसा करते हैं। हमें सुदृढ़ विश्वास है कि समस्त सहृदय तथा सुयोग्य समाज