पृष्ठ:रसकलस.djvu/२४९

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रस कलस सुकबि - समूह - मजु-साधना-बिहीन जन लोक-समाराधना को साज कैसे सजिहै। विभु की बिभूति ते विभूतिमान बनि बनि भाव-साथ कूर क्यों सुभावना को भजि है ।। 'हरिऔध' असरस उर क्यों सरस |है कैसे अरुचिरता अचारु-रुचि तजि है। मेरी मति-बीन तो मधुर ध्वनि पैहै कहाँ एरी बीनवारी जोन तेरी वीन बजि है ॥३॥ बचन-विलास ते न जाको मन बिलसत छहरत छवि ते न जाकी मति छरी है । विविध रसन ते न जाको चित सरसत रुचि की रुचिरता न जाहि रुचिकरी है ।। 'हरिऔध'-भारती न भूलिहूँ लुभैहै ताहि जाके उर माहिं भारतीयता न अरी है। वैभव मैं जाके है अभाव मजु भावन को भावुकता नाहिं जाकी भावना मैं भरी है ॥४॥ कोकिल की काकली को मान कैसे कैहे काक भील कैसे मजु मुकतावलि को पोहेगो। कैसे वर वारिज बिलोकि मोद पैहे भेक बादुर विभाकर-विभव कैसे जो हैगो ।। 'हरिऔध' कैसे 'रस-कलस' रुचैगो ताहि जाको उर रुचिर रसन ते न सोहैगो । आँखिन में वसत कलक-अक ही जो अहे. को तो मयक अवलोकि कैसे मोहेगो ।। ५ ।।