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पृष्ठ:रसकलस.djvu/२५२

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स्थायी भाव जिसकी रस में सदा स्थिति होती है अथवा रसानुकूल हृदय में जो विकार (भाव ) उत्पन्न होता है उसे स्थायी भाव कहते है। उसके निम्नलिखित नव भेद हैं- १-रति २-हास, ३-शोक, ४-क्रोध. ५-उत्साह, ६-भय, ७-ग्लानि, -आश्चर्य और ९-निर्वेद । १-रति प्रिय वस्तु में मन की प्रेमपूर्ण परायणता का नाम 'रति' है । इसके तीन भेद हैं-उत्तम, मध्यम और अधम । (क) उत्तम रति सदा एकरस रहनेवाली अनन्य प्रीति को 'उत्तम रति' कहते हैं। यह अधिकांश स्वार्थशून्य होती है। इसमें सेव्य-सेवक-भाव की प्रधानता रहती है । कवित्त- नैन मैं मधुरता मनोहरता भावन मैं चावन मैं चारुता-विकास दरसत है। जानति न रीति अनरीति औ अनीति की है पूत परतीति रोम-रोम परसत है। 'हरिऔध' पति-प्रीति-पाग-पगी अंगना के भाग-भरे भाल पै सुहाग बरसत है। देह मैं सदेह विलसति सुकुमारता है नेह-भरे उर मैं सनेह सरसत है ।।१।।