पृष्ठ:रसकलस.djvu/२६१

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रस-कलस नाविक जो नाविकता-नियम बिसारि दैहै बनि वीर वीरता-बिरद जो न बरिहै। नाव को सवार ही जो कैहै छेद नाव माहिं सकल वचाव के उपाव ते जो अरिहै ।। 'हरिऔध' बहि-बहि प्रवल विरोध-बायु बार-बार पथ जो उबार को विगरि है। कैसे जाति-उपकार-पोत मॅझधार परो आपदा-अपार-पारावार पार करिहै ।।४।। मर्मवेध मुनिन-सरोज को दिनेस प्रथयो अकाल गुनिन-कुमुद-चंद राहु-मुख परि गो। 'हरिऔध' ज्ञानिन को चितामनि चूर भयो मानिन-प्रदीपहूँ को तेज सव हरि गो॥ पारस हेराइ गयो हीन-जन-हाथन को भारती को प्यारो एकलौतो तात मरिगो। मागर सुखानो आज सतजन-मीनन को दीनन को हाय देव-पादप उखरि गो ।। ५ ।। संवैया- बातें सरोस कवी कहिकै हित माँ कबहूँ समझाइवो तेरो । मेरे घने अपराधन को वहु व्यति बनाइ दुराडबा तेरो।। कोह किये कपटी 'हरिऔध' के रचकह न रिसाइवो तेरो। मारिबो पी को न सालत है पर मालत मौत बचाइबो तेरो ॥६॥ दोहा- पोले ना अखिया खुलति बनि दुखिया है मूक । होनि विपति वतिया सुने छतिया नाहि छ टूक ।। ७ ।।