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पृष्ठ:रसकलस.djvu/२६२

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१५ स्थायी भाव दिन-दिन छीजत जाति है रही न पति छिति माहि। रेजो- रेजो होत है कठिन करेजो नाहिं ।।८।। ४-क्रोध शत्रु के अपमान, श्राग्रह और दभ से उत्पन्न हुए हर्ष के प्रतिकूल मानसिक भाव को 'क्रोध' कहते हैं। हृदय के प्रिय और अनुकूल भावों पर आघात होने से भी 'क्रोध' का प्रादुर्भाव होता है । कवित्त------ जैहै जो बिगरि तो पकरि कै रगरि दही देखि अनखैहै तो अनख पनि हाँ में। सूचे जो न बौलिहै तो ठौँ कि-ठौं कि सूधो केही वात जो बनाइहै तो लातहूँ लगैहौँ मैं | 'हरिऔध' एठिहै तो ऐ ठिवो रहैगो नाहि दॉत पीसिहै तो दौरि दॉत तोरि देहाँ मैं। ऑख फोरि डारिहाँ दिखाइहै जो आँख मोहि कोऊ ऑखि कादिहै तो ऑखि कादि हाँ मैं ॥१॥ रोस भये अरि को मसक-सम मीसि दैहै रार मचे सूर-साधना को ना सरेखिहैं । भीर परे भीरुता न भरिहे रगन माहि लाग लगे पवि को पत्तौआ सम लेखिहै। 'हरिऔध' अरे ह है अचल हिमाचल लों भिरे पुरहूत को पतंगम लौँ पेखि है। लोहा लिये कालहूँ के काल ते सकैहै नाहि लाल-लाल श्रॉखि कोऊ लाल कैसे देखिहै ।।२।।