पृष्ठ:रसकलस.djvu/२६३

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m रस-कलस मनमानी किये कबौँ मानिहीं मनाये नाहि वडे-बडे मानिन को मान मोरि देहौं मैं। प्रतिकूल परम-प्रवल-दल-पोत कॉहिं निज वल-वारिधि मैं बोरि-वोरि देहाँ मैं। 'हरिऔध' गारिहौं गरब मगरूरिन को बडे दगादार को तगा लौँ तोरि देहाँ मैं। गाल मारिहै तो अरि-गाल फारि मोद पैहौं आँख दिखराई है तो आँख फोरि देहाँ मैं ।। ३ ।। आग वरसाइहाँ अरिन के अगारन मैं गरल सुधारस-सरोवर मैं घोरिहीं। बाँके-बॉके वीरन की वीरता बिगारि देही छिति के छितिप की छितिपता को छोरिहौं ।। 'हरिऔध' तेह भये पूरिहौं पयोनिधि को बड़े-बडे तरु को तिनूका सम तोरिहौँ । फोरिहाँ गिरिन को उतारि लैही तारन को रवि को विथोरि देही ससि को निचोरिहौँ॥ ४ ॥ सर्वया- मूधियै नीकी लगै सबको भला वकता भौहन को कत दीजत । नूतन लालिमा लाभ किये कत गोल कपोल की है छवि छीजत ।। चक परी न चले 'हरिऔध' पे नाहक ही इतनो कत खीजत । बाल हो याही निहाल भई अब लाल कहा अखियान को कीजत ।।५।। दोहा- चिनगी लाइ चिते-चितै हरहिं चारु चित-चैन । दहत नेह की देह है तेह-तये तिय - नैन ।। ६ ।।