पृष्ठ:रसकलस.djvu/२६५

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रसकलस १८ . पीछे जो हदेंगे तो पगन काँहि पंगु कैहौं कर जो कॅपैगे तो करन को कटहौं मैं। छिलि जैहै जो न जाति-उर के छतन ते तो छल-धाम छाती कॉहिं छलनी बनहीं मैं॥ 'हरिऔध' जो न कढ़ि पैहे चिनगारियों वो लोचनता लोचनन केरि छोनि लैहौं मैं । भीति ते भरैगो तो रहैगो भेजो भेजो नाहिं कॉपिहै करेजो तो करेजो काढि देहों मैं ।। ३ ।। सवैया-- पारि सकौं अपने परपच की बेरी परीनहूँ के बर पायन । आनि सकौं ससिहूं की कला अपने कल कौसल और उपायन । कामिनि कौन तिहूं पुर में 'हरिऔध' हौं जाकौ सकौं अपनाय न । श्रान तियान की वात कहा ठगि लाऊँ कहो दिवि की ठकुरायन ||४|| दोहा- छै उछाह-कर वनत है मरु छिति छत्रिमय कुंज । कनक कनकता लहत है रजत होत रज-पुज ।।५।। उर उमगे उधरति धरा नभ विचरत नभ-यान । नख पे ते गिरि नहिं गिरत जल पै तिरत पखान ।। ६ ।। ६-मय अपराध, भयकर दान्द, विकृत चेटा और रौद्रमूर्ति जीवाटि द्वारा जो मनो- विकार उत्पन्न होता है उसका नाम 'भय है। कवित्त- संका की चुरल है बनावति दुचित-चित भूत-अभिभूत भार उर को गयो नहीं। भूरि भीरता हे होति भीति-अनुभूति ही ते भरि जात जी मैं कब भमा नयो नही ।।