पृष्ठ:रसकलस.djvu/२७०

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so म्थायी भाव २३ भव-वारि-बाह-व्यूह-बूंद-सी वसुंधरा है नाना-वायु नाना-बायु-मंडल सहारे हैं। श्राकर अनंत हैं अनंत हैं निसाकरहूँ रस-रामि-रस ते सरस रस-सारे हैं। 'हरिऔध' मिल्यो ना अपार-पारावार-पार सीमित असीम की असीमता ते हारे हैं। प्रभु मंजु-तेज को विकास है पतंग-पुंज विभु-तनु-तोयधि-तरंग नभ-तारे हैं॥४॥ 11 सवैया- मंद ही मंद सुगौन के सूरज चंद है मौन तुमैं निरधारै । कानन को तनहूँ सदा सॉवरे तोको अनंत अचित उचार धीर-पयोधिहूँ 'औष-हरी' मरजाद सों तोको गभीर पुकार । सीतल या मलयानिलहूँ अपनी-तल तेरो प्रताप पसारै ॥ ५॥ दोहा- देखत ही कितनी गुनो लोचन निल है जात । कैसे नभ तारन-सहित तारन मॉहिं समात ॥ ६॥ सरसित मानस मैं वहे सरस प्रेम-रस सोत । गागर मैं सागर भरत गागर सागर होत ।। ७ ।। ९-निर्वेद ( शम) विशेष ज्ञान द्वारा सांसारिक विषयों में विराग-क्षणभगुर पदार्थों को देख- और हृदय में त्याग का विकास होने से जो एक प्रकार का मनोविकास उत्पन्न होम है उसका नाम 'निवेद' है।