पृष्ठ:रसकलस.djvu/२७२

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२५ स्थायी भाव माधुरी परी है मंद कमनीय कदहूँ की मिसिरीहूँ विसरि गई ना रही काम की । सूखी ऊख निपट निकाम हे गयो मयूख गरिमा नसी है आमहूँ-से रस-धाम की ।। 'हरिऔध' दाख फूटी आँख सो न देखी जाति गोरसहूँ गुरुता गॅवाई गुन-ग्राम की । चीनी बसुधा मैं लै गई है औगुनी तो कहा सौगुनी सुधा सो है मिठाई हरि-नाम की ॥४॥ पाहन भये पै चाहै पद-रज प्रमिन को बिहग भये पै बसै बंदनीय बन मै फल-फूल परसै पगन पादपादि भये पसु भये पावै थान संतन-सदन मैं ॥ 'हरिऔध' कीट भये काहू भॉति भाषै तोहि नर भये तेरो पूत-प्रेम रमै मन मैं जाने कहा योग औ जुगुत एक जान तोहि जीवितेस जाइ जौन योनि मॉहिं जनमैं ॥५॥ सवैया-- भूलि के औरन की सुधि अंध लै जाकी सुगंध पै भौर लुभानो । सभु के सीस पै जो बिलस्यो 'हरिऔध' जू जाते सरौ सरसाना ।। त्यो सुखमा कहि जाकी अजौ मनहूँ ना कवीनहुँ को अनुलानो । सोई सरोरुह धूर भरो परो भू पै गरी बगरो कुम्हिलानो ॥६॥ दोहा- धोखो है, काको बिभव, है काको यह भौन । है काको यह धन, धरा, अहे घराधिप कौन ॥ ७ ॥