पृष्ठ:रसकलस.djvu/२७३

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( रसकलस अरत रहत बिगरत बनत लरत-भिरत करि रार । कत सोचत नहिं बावरे है जीवो दिन चार ||८|| है धन-छाया श्रोस-कन है तरु पीरो पात | तू का है कितनो अहै कत इतनो इतरात ।।६।। धूलि मोहिं रावन मिल्यो गई रसातल लंक । कहा कलंकित होत कोउ सिर पर लेइ कलंक ।।१०।। का धन, का जन, का बिभव, कामहि, का परिवार । सपने की संपति अहै सब आहार बिहार ।।११।। .