पृष्ठ:रसकलस.djvu/२७६

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२६ संचारी भाव संचारी साव जो भाव रस के उपयोगी होकर जल के तरंग की भाँति उसमें संचरना करते हैं उनको 'सचारी भाव' कहते हैं। ऐसे भावों की संख्या तैंतीत हैं। क्रमशः उनका उल्लेख किया जाता है- १-निर्वेद विपत्ति, ईपी और ज्ञानादि के कारण अपने शरीर अथवा सासारिक विषयों जो विराग भाव उत्पन्न होता है उसे 'निवेद सचारी' कहते हैं। दीनता, चिंता, श्राँस् , विवर्णता, उच्छ्वास, आकुलता आदि इसके लक्षण हैं । कवित्त- भूलि ना निहारे पर-नारि ए हमारे नैन रूखे बैन भाखन ते रसना 'भगी रहै। पर-अपवाद सो न कान हित राखें कौं मान-ममता मैं मेरी मति ना पगी रहै ।। 'हरिऔध' चित ना प्रपंचन सों प्यार राखै सदाचार-संचन मै सुरुचि जगी रहै। भगन सदा ही रहै मनुओं हमारो राम पगन तिहारे मेरी लगन लगी रहै ।।१।। सवैया- कारज सोस को होत सबै पद-पंकज की रज को अपनाये। स्वारथ होत हैं नैन दोऊ छवि सॉवरी सूरत की दिखराये ॥ पातकी कान पुनीत बनें 'हरियोध' की प्यारी कथान सुनाये। पावन होति है जीह अपावन भावन सों हरि के गुन गाये ॥२॥ पाप ही मैं सब जन्म गयो हित सो न कयौं हरि के गुन गाये । नेह कियो पर-नारिन सों जगबंचन को वहु वेस बनाये ।।