पृष्ठ:रसकलस.djvu/२८४

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संचारी भाग कंचन-रचित मनि-मंडित-महल-मंजु दीन-उर-दाह दावानल माहि दहिहै। त्रिभुवन-पूरित प्रतीति-प्रतिभू-प्रताप पातक के प्रवल-प्रवाह माहि बहिहै ।। 'हरिऔध' वा दिन गिरगो गिरि गौरव को जा दिन गरीब की गोहार गरो गहि है। कान नूदि [दि कान करि है न वात को लौं मद-वारो ऑखि [दि-मदि कौ लौ रहि है ।।१।। औरन की आनि को न कैसे सनमान हो तो मोल मति-मानता को ममता न खोती जो। लालिमा मलिन कैसे होति लोक-आनन की कलह-कुबीज मन-कालिमा न बोती जो ।। 'हरिऔध' मेदिनी की मंजुता महान होति समता गुमान-कदाचार से न रोती जो। मानवता-मंदिर को मंजुल-महत होतो मानव मे मादकता मद की न होती जो ॥२॥ सवैया- मधुराई मनोहरता मुसुकानि मै औचक आइ समानी नई। रस को यतिधानहूँ मैं 'हरिऔध' अनेक-गुनी निपुनाई ठई ।। मद छाके छवीली-विलासन हूँ सुबिलासिता की वर वेलि बई । छलकी-सी छटा अखियान परै छवि आननहूँ पै छगूनी छई ॥३॥ दोहा- मान राज-मंदिर-रुचिर नहि मिलतो रज माहि। ओले- जैसे वरसते जो मद - गोले नाहिं ॥४॥