पृष्ठ:रसकलस.djvu/२८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसकलस ३६ लसित नवल - लतिकान सी बहु - लालसा उमंग । दलित होति किमि, नहिं दलत जो मद-समद-मतंग ।।।। अनुचित उचित विचार करि चित न कौन अकुलात | गोरव गिरि पे होत लखि पल-पल मद-पवि-पात ॥६॥ जा मैं लसत कुलालसा कला - कलित - सुख सोम। तामस - मानस - गगन - गत - मद है वह तम तोम ।।७।। वर - रस - कामुक कहि सके जाहि न कवौं रसाल | अकमनीय - मन - विपिन को है मद वह तरु-ताल ।।८।। ७-धृति तत्वज्ञान, साहस, सत्सग यादि के प्रभाव से विपत्ति-काल में अविचलित- चित्त होना 'धृति' कहलाता है। तृति, चित्त को स्थिरता, धीरता, बुद्धि की गहनता इसके लक्षण हैं कवित्त- तमके गगन-तल के तारन को तोरि लैंहै उमगे तरंगमान-तोयधि को तरिहै। उचके चकित कैहै चद को खेलौना करि मपरे स-कौतुक तरनि-तेज हरिहै ।। 'हरिऔध' कहा धाक बांधि कर पहै नाहिं धीर जो अधीरता विहाई धीर धरिहै । लपके कचरि चूर करिहे हिमाचल को पके पाकसामन को पकरि पछरिहै ।। तीर-सम-सिसिर-समोर वेधि दैहे नाहिं मद-मंद-मलय-पवन पुनि बहिहै। कारे-कारे-तोयद-कतार दिखरहै नाहि भागनभ हमत-विमल-विधु लहिहै।