पृष्ठ:रसकलस.djvu/२९५

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रसकलस gę जहाँ हुती एकता, विबुधता विराजमान तहाँ बैर, कलह, बिबाद को बसेसे हैं। जहाँ हुतो बिमल-विचार-बिधु को बिकास तहाँ छल कपट-सघन सघन धन घेरो है 'हरिऔध' विगरे अतीत बैभवन हेरि बार-बार उर होत व्यथित-घनेरो है। बस-अचेतनता विलोकि चारु-चेतन को चेत करि बनत अचेत चित मेरो है ॥२॥ सवैया- के हमहूँ कबौं लोक-ललाम लौं लोक-ललामता के रखवारे । कोमलता-कमनीयता-लालित गात-मनोहरता मतवारे॥ भाल के अंक रहे भव के 'हरिऔध' रहे दिवि-देव-दुलारे । लाल रहे कमला-कल-अंक के भूतक-भारती-लोयन-तारे ॥३॥ ढोहा- सुख लालित कलरुचि कलित कुलकलक के काल । कबहूँ हमहूँ लोक के रहे अलौकिक लाल ||४|| कवौं न हम ऐसे हुते वोध-विहीन बराक । बॅधी धरातल धाक ते बॅची नाक-पति नाक ||५|| १६-अमर्ष दूसरे के अहंकार को न सहकर उसके नष्ट करने की कामना, अथवा आक्षेप और अपमानजन्य चित्रविक्षेप का नाम 'अमर्ष' है । आँखों में लाली, शिरकप, भ्रमग और तर्जन आदि इसके लक्षण है। कवित्त- भूतल जो भव की विभूति को दुराहहै तो विगरि विगरि नाको वारिधि में बोरिहौं।