पृष्ठ:रसकलस.djvu/२९४

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संचारी भाव सवल के सामने सरोवर पयोनिधि है सावधान सामने धरनि-धुरे धागे हैं। 'हरिऔध' सारी सिद्धि तिनकी सहोदरा है सिद्ध-पाग मे जो सची साधना के पागे हैं। भाग जारो भू मैं कौन भोग भोग पाये नही जाग गये जग में न काके भाग जागे हैं ।।२।। द्रोहा- खुलत न ऑखें अधखुली बार-बार अंगिरात | जगत जगाये क्यो नहीं रही नहीं अब रात ||३|| फिरत तमीचर देखियत है तम चारो ओर । जागह-जगहु जगत-जन मूस रहे हैं चोर ॥४॥ १५-स्मृात सदृश वस्तु के अवलोकन तथा चिंतन, विहार-स्थल के परिदर्शन आदि ने जो पूर्वानुभूत बात याद हो जाती है उसे 'स्मृति' कहते हैं। इसके लक्षण चांचल्य और भौंह चढाना श्रादि होते है। कवित्त- वीरता रही न वंदनीयता बिलोप भई सदा के सपूत कपूत निवहत हैं। देवराज देखि सुख जिनको सिहात हुतो वेई आज सारी दैव सॉसत सहत हैं। 'हरिऔध' विधि-विधान को कहाँ लौ कहै अविधि-प्रवाह माँहि विवुध बहत हैं। बारो फल लहि जे सफल लोक-पाल हुते तिनके सलोने लाल लोन ना लहत हैं ॥१॥ The