पृष्ठ:रसकलस.djvu/२९७

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रसकलस ४८ १७-गर्व अपने प्रमाव, ऐश्वर्य विद्या तथा कुलीनता आदि का अहंकार करना, अन्य ने अपने को अधिक मानना 'गर्व' कहलाता है। अन्य में तुच्छ दृष्टि, अविनय, ओष्ट का कपन, अगुष्ट का अनुचित रीति से दिखलाना आदि इसके लक्षण हैं । ऋवित्त- लोक-हित-सुरसरि-सलिल सनेही महा जाति-हित-पूत वेदिका को बर-बलि है। देस-सेवा-नव-मेघ-माला को मुदित-मोर कुमति - मलिन - महि • पादप अवलि है। हरिऔध' रस-मान-सर को मराल-मंजु भाव-सर-बारिजात कल्पना को कलि है। ललना-ललित-चरितावलि को लोलुप है कविता-कलित-कुसुमावलि को अलि है ।।१।। सवेया- है धन गो-धन मंजुल मदिर है सजी सेज औ साज सँवारे । चाव है चारु, विचार है सुदर भावुकता भरे भाव हैं सारे । मो सम कौन सुखी 'हरिऔध' है हैं ललना हग लोल हमारे । है लली लोयन को पुतरी वनी लाल वने अहैं लोयन-तारे ||२|| पखी बताइ हँसी करै हस की केहरि को है पसून मैं लेखो। नजुल मानै न मीनन को 'हरिऔध' वखानै न बारिज बेखो। आपने रूप ही की उपमा करें और की चाहे न राखन रेखो। दाग को दोख दिखावत चद मैं या तरुनी को दिमाग तो देखो ॥३॥ दोहा- है ऐनी कमनीयता नहि नहि कनकाचल माहि। भारत - भूतल - रज - सरिस है रजताचल नाहिं ॥४॥