पृष्ठ:रसकलस.djvu/३२२

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७३ आलंवन विभाव नेक नहीं मेरी सुनत हारि परे हम टेरि । एरी क्यों लटि जात मन यह तेरी लट हेरि ।। ७ ।। गति मन - नैनन की निरखि मति बतरावति माहि । ए जुलमैं परिजात हैं जुलमी जुलफन जोहि ॥८॥ केश कवित्त- मंजुल सिवार सुकुमार - पन्नगी - कुमार मेरे जान मखतूल-तारहूँ ते नीके हैं। रस-धाम करें ए अकाम-मनहूँ को छाम तम ते बनाये वीछि काम-रमनी के है 'हरिऔध' सरस-सिंगार-रस के हैं सार कारक - अपार-मोद सारी श्रावनी के हैं। घुघुरारे आनन-बगारे छविवारे प्यारे सटकारे कारे कारे-केस कामिनी के हैं। दोहा- छहरत छाये छवा लौ छंद छगूने धार । प्यारे - प्यारे छरहरे छविवारे ए वार॥ १०॥ कारे - कारे चीकने सने - सनेह सु- देस। अटकाये लेत हैं लटकाए केस ॥ ११ ॥ विन बूझे सरवर करत बयार। विगरेहूँ बनतहिं रहहिं ए वगरे वर - वार ॥ १२॥ मेरो मन सोचत निरखि कामिनि तेरे बार। दीप-सिखा-मुख ते कढ़त काजर की यह धार ॥ १३ ॥ के सॉपिनि के सिसुन को गहि आन्यो मुरवान । किधौं छरहरे छहरत छये छवान ॥१४॥ मन तू वावरी केस ए