पृष्ठ:रसकलस.djvu/३२१

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रसकलस चित को बिचलावत चलत कुटिल चाल न लखात । लखि वेनी व्याकुल बनो फिरत व्याल वल खात ।। ४ ॥ कैसे कोऊ सहि सकै वेनी-बिख की ज्वाल । विवर बसेहूँ नहिं भयो गरल-विवरजित व्याल ! ॥५॥ जूरा पूरा बिखधर-फन दियो विख-कूरा वतराय। मन-अजान तबहूँ जुरा वा जूरा सो जाय ।। १ ।। तव जूरा को भेद तिय समुझि परत कछु नॉहिं। है छटॉक - भरहूँ न पै मन बॉधत छन मॉहिं ।।२।। जूरा वाधन मैं कछू साधन और लखात। कहूँ बॅधनवारो न मन जहँ बरवस बॅधि जात ।। ३ ।। अलक भ्रमत इनैं न विलोकियत वन - वागन गुंजारि । अलि-कुल अकुलाने फिरत अलकावली निहारि ॥ १॥ पल - पल ललकत ही रहैं लालन - लोयन दोय । लखे आलुलायित अलक लालायित चित होय ॥२॥ कैसे कोउ मानव सके निज मन - नैनन रोकि। अलकावारेहूँ फॅसहि अलकावलि अवलोकि ।।३।। बॅधत अरूमत ही रहत मिटत न मन को दद। जो छोरथो जूरा परचो अलकावलि को फट ।॥2॥ पान-काल जब चूकि के लट-व्यालिनि बल खानि । जल-कन मिस मुख-समि-सुधा बूंद-बूंद गिरि जाति ।। ५ ॥ लार बहावत नागिनी मुख-मयंक - मधु - हेत । टपकत अलकन ते न अलि यह जल-कन छवि देत ॥६॥