पृष्ठ:रसकलस.djvu/३३६

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आलंबन विभाग हथेली दोहा- लोक-लालिमा ते ललित लखि करतल अवदात । खटके ही मैं रहत हैं बट के टटके-पात ॥१॥ अधिक लालिमा लहन हित ललकित रहि सब काल । रखति लाल को हाथ मैं बाल-हथेली-लाल ॥२॥ उँगली दोहा- चंपक-कलित-कलीन को किधौं बिराजत .जूह । किधी मंजु-कर कमल मैं बिलसत करज-समूह ॥शा कर कितने संकेत-कल काहि न करत निहाल । नवल-वाल की आँगुरी आँगुरी इंगुर इंगुर जैसी लाल ॥२॥ कवित्त- श्रीफल कहे ते सुग्व होत सपने हूँ नॉहिं तोख होत हिय मैं न कंदुक बखाने से । कंचन-कलस की कथान को उठावै कौन रति को सिंधोरा कहे रहत लजाने से। 'हरिऔध' जामै बसि मत्त-मन-भृग मेरो कढ़त न दीखै अजौं कौन हूँ वहाने से । सोभा-सने सौहैं सोहैं ससि लौं सु-आनन के सरस-उरोज ए सरोज सकुचाने से ॥१॥