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पृष्ठ:रसकलस.djvu/३४

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है। किंतु गाना आरंभ होने दीजिये। फिर देखिये, वह किस प्रकार इन समस्त स्वर लहरियों पर अधिकार कर लेता है। उसके एक-एक भावमय पदो को स्पष्ट सुनाई देने के लिये किस प्रकार स्वर-लहरियों को संयत होना पड़ता है और फिर वह किस प्रकार सहृदय जनों को विमुग्ध करके भावमत्त बनाता और उनके आनंद को द्विगुण-त्रिगुण करता रहता है, यह अविदित नहीं। कभी-कभी तो एक-एक पद पर लोग लोटपोट हो जाते और तत्संबंधी अन्य पदों को सुनने के लिये इतना उत्कर्ण हो उठते है कि क्षण-भर का विलम्ब भी असह्य हो जाता है। यदि आप लोगो ने कव्वाली सुनी होगी अथवा किसी संत-समाज मैं बैठकर भजन-गान होते देखा होगा तो आप लोगो को श्रोताओं की तल्लीनता अविदित न होगी। उस समय की वहाँ की उत्सुकता और उस समय का वहाँ का भावावेश विलक्षण होता है। यह ज्ञात होता है कि चारो ओर से अपूर्व आनंद का समुद्र उमड़ रहा है और उसमें लोग मग्न हो रहे है, हाथ-पाँव मार रहे हैं, उछल रहे हैं और जितना ही अलौकिक रस का पान कर रहे है उत्तरोत्तर उनकी तृपा उतनी ही बढ़ती जा रही है। कितना ही मधुर बाजा बजे, कितनी ही मुग्धकरी ध्वनि क्यों न हो, उसके द्वारा प्रायः ऐसा भावावेश नहीं होता, क्योंकि उसका रस उतना प्रगाढ़ नहीं हो सकता। भावमय शब्दों को कान सुन सकते हैं, यदि ये शब्द मधुर कंठ से निकले हैं तो उसकी मधुरता का आनंद वे प्राप्त कर सकते हैं, किंतु उनमें जो लोकोत्तर अथवा अपूर्व भाव है उसके ग्रहण करने की शक्ति उनमें नहीं होती, अतएव भावमय शब्द-प्रसूत-विह्वलता वे उत्पन्न नहीं कर सकते। यह कार्य हृदय का है और हृदय के भाव-विह्लल होने पर ही, इस प्रकार का भावावेश देखा जा सकता है।

कंठस्वर, मधुरध्वनि और वचन-रचना के अतिरिक्त वेशविन्यास भावभंगी, कथन-शैली इत्यादि का प्रभाव भी हृदय पर पड़ता है। इनकी