पृष्ठ:रसकलस.djvu/३५

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सहकारिता से वचन-रचना अपने भावों को अधिकाधिक पुष्ट कर सकती है। कर-संचालन, अंग-संचालन, अथच अंगुलि-निर्देश से अनेक अस्पष्ट भाव स्पष्ट हो जाते हैं और कितनी ही अव्यक्त बातें व्यक्त बनती हैं। नृत्त अथवा नृत्य एवं अभिनय के ढंग की अनेक कलाएँ भी यथावसर भावपुष्टि का साधन बनती रहती हैं। अतएव इनकी उपयोगिता भी अल्प नहीं। जब ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक शब्द अंग-संचालनादि अन्य साधनों और कलाओं के आधार से किसी भाव को पुष्ट करते हैं उसकी वास्तविक पुष्टि उसी समय होती है और साहित्य के उस रस की यथार्थ उत्पत्ति भी प्राय तभी होती है, जो सहृदय-हृदय-सवेद्य माना जाता और जिसका सुख ब्रह्मानंद समान कहा जाता है। इसीलिये प्राय दृश्य-काव्यों-द्वारा ही साहित्यिक रस की मीमांसा की गई है क्योंकि उसमें प्राय सभी साधनों का समीकरण होता है।

रस की उत्पत्ति

यह स्वाभाविकता है कि मनुष्य मनुष्य के सुख से सुखी और उसके दुःख से दुखी होती है। सवध-विशेष होने पर इसकी मात्रा में तारतम्य हो सकता है, किंतु यह असंभव है कि एक मानव के हृदय का प्रभाव दूसरे मानव के हृदय पर न पड़े। संस्कृति, विचार-विभिन्नता और विरोध अंतर डाल सकते हैं, किंतु यह अपवाद है, साधारण नियम नहीं। जब हम किसी को रोते देखते हैं तो हमारा दिल पिघल जाता है और हम भी उसके दुःख का अनुभव करने लगते हैं और जब किसी को प्रफुल्ल देखते हैं तो हम भी प्रफुल्ल हो जाते हैं और उसके हृदय का आनंद हमारे हृदय में भी प्रवेश करता है। वास्तव में प्राणी- मात्र का हृदय एक है और एक गुप्त तार सदा उसको मिलाये रहता है, यह दूसरी बात है कि कोई प्रतिबध बीच-बीच में उसको तोड़ता रहे। एक भूखा हमारे सामने आकर जब पेट दिखा और आँसू बहाकर कुछ माँगता है तो